Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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(XLII ) लोक- अलोकवाद, पञ्चास्तिकायवाद, परमाणुवाद, तमस्काय और कृष्णराज का सिद्धान्त आदि ऐसे हैं जो जैन दर्शन के सर्वथा स्वतंत्र अस्तित्व के प्रज्ञापक हैं। ""
" जैन दर्शन का वास्तविक स्वरूप आगम- सूत्रों में निहित है। मध्यकालीन ग्रन्थ खण्डन - मण्डन के ग्रन्थ हैं । हमारी दृष्टि में वे दर्शन के प्रतिनिधि ग्रन्थ नहीं हैं, जैन दर्शन के आधार भूत और मौलिक ग्रन्थ आगम-ग्रन्थ हैं। ये दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं ।"२
"भगवान महावीर ने जीवों के छह निकाय बतलाए । उनमें त्रस - निकाय के जीव प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। वनस्पति-निकाय के जीव अब विज्ञान द्वारा भी सम्मत हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु-इन चार निकायों के जीव विज्ञान द्वारा स्वीकृत नहीं हुए। भगवान महावीर ने पृथ्वी आदि जीवों का केवल अस्तित्व ही नहीं बतलाया, उनका जीवन-मान, आहार, श्वास, चैतन्य - विकास, संज्ञाएं आदि पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। पृथ्वीकायिक जीवों का न्यूनतम जीवन-काल अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट जीवन-काल बाईस हजार वर्ष का होता है । वे श्वास निश्चित क्रम से नहीं लेते -कभी कम समय से और कभी अधिक समय से लेते हैं। उनमें आहार की इच्छा होती है। वे प्रतिक्षण आहार लेते हैं । उनमें स्पर्शनेन्द्रिय का चैतन्य स्पष्ट होता है। चैतन्य की अन्य धाराएं अस्पष्ट होती हैं। मनुष्य जैसे श्वासकाल में प्राणवायु का ग्रहण करता है वैसे पृथ्वीकाय के जीव श्वासकाल में केवल वायु को ही ग्रहण नहीं करते किन्तु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति- इन सभी के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं।
"पृथ्वी की भांति पानी आदि के जीव भी श्वास लेते हैं, आहार आदि करते हैं । वर्तमान विज्ञान ने वनस्पति- जीवों के विविध पक्षों का अध्ययन कर उनके रहस्यों को अनावृत किया है, किन्तु पृथ्वी आदि के जीवों पर पर्याप्त शोध नहीं की । वनस्पति क्रोध और प्रेम प्रदर्शित करती है । प्रेमपूर्ण व्यवहार से वह प्रफुल्लित होती है और घृणापूर्ण व्यवहार से वह मुरझा जाती है। विज्ञान के ये परीक्षण हमें महावीर के इस सिद्धान्त की ओर ले जाते हैं कि वनस्पति में दस संज्ञाएं होती हैं। वे संज्ञाएं इस प्रकार हैं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, ओघसंज्ञा और लोकसंज्ञा । इन संज्ञाओं का अस्तित्व होने पर वनस्पति अस्पष्ट रूप में वही व्यवहार करती है जो स्पष्ट रूप में मनुष्य करता है । "५
जैन दर्शन में प्रणीत षड्जीवनिकायवाद का जो मौलिक और सूक्ष्म प्रतिपादन भगवती आदि आगमों में उपलब्ध है, संभवतः उसी के आधार पर आचार्य सिद्धसेन ने लिखा
३.
१.
२.
भगवई (भाष्य), खण्ड १, भूमिका, पृ.
१६।
वही, भूमिका, पृ. १६ ।
अंगसुत्ताणि, भाग २, भगवई, १/१/
३२, पृ. ९ ।
४.
वही, ९ / ३४ / २५३, २५४, पृ. ४६४ । ५. भगवई (भाष्य), खण्ड १, पृ. १७ ।