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अनेकान्त/55/1
पीछे हमारे पास आवें। मैनें जब पण्डितजी को पूछा- पण्डितजी आपने इन्हें समय तो दिया ही नहीं। पण्डितजी ने मुझे अति संक्षिप्त उत्तर दिया अरुण कुमार जी ! उनके पास व्यर्थ चर्चा के लिये अनन्त समय है, मेरी आयु दिन प्रतिदिन क्षीणता की ओर अग्रसर है अतः समय कम और अभी बहुत काम करना है । सचमुच वे मरणपर्यन्त कार्य करते रहे मृत्यु से पाँच दिवस पूर्व अपने गाँव सादूमल से ब्यावर तक की यात्रा किसी ग्रन्थ प्रकाशन के निमित्त की थी, जो उनकी ज्ञानसाधना के प्रति कर्मठता एवम् जीवटपना का एक अनुकरणीय उदाहरण है।
देवदर्शन और जिन - स्तुति, नितप्रति पूजन करने का उनका नित्य नियम था। एकदा किसी श्रेष्ठी ने उन्हें कहा, पण्डितजी आप अष्टद्रव्य पूजन तो करते नहीं, उन्होंने उत्तर दिया मैं अष्टविध पूजन एक बार नहीं, बल्कि द्वादशांग पूजन पूरे दिवस पर्यन्त करता हूँ। ऐसे द्वादशांग जिनवाणी के महान् भक्त पूजक, आराधक अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगी थे - पं. हीरालाल जी शास्त्री।
हीराश्रम सादूमल (ललितपुर) में श्रुताराधन करते हुए पूज्य पण्डितजी सन् 1981 की फरवरी मास में परलोक सिधार गये, उनकी पुद्गलमयी काया तो पुद्गल में ही विलीन हो गयी, परन्तु उनके द्वारा अनूदित, व्याख्यात एवम् सम्पादित ग्रन्थ-रचनाओं के माध्यम से वे साहित्य जगत् में सदाअमर रहेंगे, उनके द्वारा किये गये कार्य विद्वजगत् में प्रकाश स्तम्भ बनकर साहित्योद्धार की दिशा में सदा प्रदर्शक बने रहेंगे।
आदरणीय पण्डितजी के स्थितिकाल में प्राचीन आचार्यो के द्वारा प्रणीत साहित्य का विशाल भाग प्रकाश में नही आ सका था। बहुत आवश्यकता थी विविध शास्त्र भण्डारों बन्द, दीमक भक्षित होते हुए यत्र-तत्र विकीर्ण जैन साहित्य के संग्रहण पूर्वक उनके भाषा रूपान्तर एवम् आधुनिक पद्धति के अनुकूल सम्पादनोपरान्त प्रकाशन की । पण्डितजी ने ऐ. पन्नालाल सरस्वती भवन में सेवा के माध्यम से विकीर्ण साहित्य के संग्रह एवम् संरक्षण में तो अपनी पहली भूमिका निभायी। साथ ही, विशाल परिमाण में प्राचीन जैन साहित्य का सम्पादन एवम् अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित कराया । विशेष बात यह है कि विषय विवेचन की सूक्ष्मता एवम् प्रतिपादन के विस्तार वाले