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अनेकान्त/55/3
असद् आचरण से निवृत्त होकर सदाचरण में प्रवृत्ति करना ही अहिंसा का वास्तविक रूप है।
प्रज्ञामूर्ति पं. सुखलालजी ने लिखा है "अशोक के राज्यकाल का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उनके व्यवहार में निवर्तक कार्यो के साथ प्रवर्तक कार्यों पर बल दिया गया था। हिंसा निवृत्ति के साथ-साथ धर्मशालायें बनवाना, पानी पिलाना, पेड़ लगाना आदि परोपकार के कार्य भी हुए है। अशोक ने प्रचार किया कि हिंसा न करना तो ठीक है, पर दया-धर्म भी करना उचित है...। व्यक्ति स्वयं दूसरों को कष्ट न दें, किन्तु रास्ते में कोई घायल या भिखारी पड़ा है तो उससे बचकर निकल जाने से अहिंसा की पूर्ति नहीं होगी। किन्तु उसे क्या पीड़ा है? क्यों है? उसे क्या मदद ही जाय? इसकी जानकारी
और उपाय किये बिना अहिंसा अधूरी है। अहिंसा केवल निवृत्ति में ही चरितार्थ नहीं होती। इसका विचार निवृत्ति में से हुआ है किन्तु उसकी कृतार्थता प्रवृत्ति में ही हो सकती है। अनुकम्पा
पंडित प्रवर आशाधर जी ने लिखा हैयस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चरितं कुतः। न हि भूतगृहां कापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत्॥ धर्मामृत (अनगार) 4/6 जिसकी प्राणियों पर दया नहीं है उसके समीचीन चारित्र कैसे हो सकता है? क्योंकि जीवों को मारने वाले की देवपूजा, दान, स्वाध्याय आदि कोई भी क्रिया कल्याणकारी नहीं होती।
विश्वसन्ति रिपवोऽपि दयालोः विजसन्ति सुहृदोऽप्यदयाच्च। प्राणसंशयपदं हि विहाय स्वार्थमीप्सति ननु स्तनपोऽपि॥
धर्मामृत (अनगार 4/10) दयालु का शत्रु भी विश्वास करते हैं और दयाहीन से मित्र भी डरते हैं। ठीक ही है दूध पीता शिशु भी, जहाँ प्राण जाने का सन्देह होता है ऐसे स्थान से बचकर ही इष्ट वस्तु को प्राप्त करना चाहता है।