Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 261
________________ अनेकान्त-55/4 अर्थात् परिग्रह के कारण नियम से बंध होता है। देह पंचेन्द्रिय का आधार होने से इन्द्रियमय है। इसके लिए वस्त्रादि ग्रहण करता है। तदनन्तर अन्य की अभिलाषा करके सहवास से अपनी इच्छा सिद्ध करता है। अतः परिग्रह का मूल हेतु इन्द्रियाभिलाषा है। परिग्रह ध्यान एवं स्वाध्याय में बाधक है इसलिए कर्म का संवर और निर्जरा न होने से सर्व कर्म का क्षय कैसे होगा अर्थात् नहीं। परिग्रह हिंसा का मूल कारण है। आचार्य अमृतचन्द ने लिखा है हिंसापर्यायत्वात् सिद्धा हिंसान्तरङ्ग.सङ्के.षु। बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूच्छैव हिंसात्वम्॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक 119 __ अन्तरंग परिग्रह के जो चौदह भेद हैं वे सब हिंसा के पर्याय हैं क्योंकि विभाव परिणाम हैं, अतएव अन्तरंग परिग्रह स्वयं हिंसा रूप हुआ और बहिरंग परिग्रह ममत्व परिणामों के बिना नहीं होता, इस कारण उसमें भी हिसा है। यहां ध्यातव्य है कि ममत्व परिणामों से परिग्रह होता है, निर्ममत्व से नहीं। केवली तीर्थंकर के समवसरण की विभूति ममत्व रहित होने से परिग्रह नहीं तत्त्वार्थसूत्र में लिखा हैबह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः। 6/15 बहु आरम्भ और बहु परिग्रह के भाव नरक आयु के कारण हैं। तत्वार्थ-वार्तिक में इस सूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है आरम्भ हिसंक कर्म (व्यापार) है। हिंसन शील हिंसक होते हैं और उन हिंसकों के कर्म हैंस्य हैं। यह आरम्भ कहलाता है। 'यह मेरा है इस प्रकार का संकल्प परिग्रह है-यह मेरी वस्तु है मैं इसका स्वामी हूँ'। इस प्रकार का आत्मीय अभिमान एक संकल्प परिग्रह कहलाता है। परिग्रह लोलुप व्यक्ति तीव्रतर कषाय परिणाम वाले और हिंसा में तत्पर होते

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