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अनेकान्त-55/4
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हैं। यह बहुत बार जाना गया है, देखा गया है, अनुमान के द्वारा भावित है और सुना गया है। उन कर्मों को आत्मसात् करने से वे व्यक्ति लोहे के तपे हुए गोले के समान कषाय-ज्वालाओं से संतप्त होकर क्रूरकर्मा होते हैं और नरकायु का आस्रव करते हैं। उनका विस्तार इस प्रकार है- मिथ्यादर्शन, अशिष्ट आचरण, उत्कृष्ट मान, पत्थर की रेखा के समान क्रोध, तीव्र लोभानुराग, अनुकम्पा रहित भाव, पर-परिताप में खुश होना, बध-बन्धन आदि का अभिनिवेश, जीवों की सतत हिंसा करना, प्राणिवध, असत्यभाषणशीलिता, परधनहरण, गुपचुप राग-चेष्टायें, मैथुन प्रवृत्ति, बहु आरम्भ, इन्द्रिय परवशता, तीव्र काम भोगाभिलाषा की प्रवृद्धता, नि:शीलता, पापनिमित्तक भोजन का अभिप्राय, बद्धवैरता, क्रूरतापूर्वक रोना-चिल्लाना, अनुग्रहरहित स्वभाव, यति वर्ग में फूट पैदा करना, तीर्थकर की आसादना, कृष्णलेश्या से उत्पन्न रौद्र परिणाम और रौद्रध्यानपूर्वक मरण आदि नरक आयु में आस्रव हैं। अपरिग्रही व्यक्ति ही सच्चा ज्ञानी है- जिन शासन में सम्यग्ज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य ज्ञान से ही महान होता है परन्तु वह कौन सा ज्ञान है उसके सम्बन्ध में आचार्य वटकेर ने लिखा है--
जेण रागा विरज्जेज्ज जेण ऐएसु रज्जदि। जेण मित्ती पभावेज्ज तं णाणं जिणसासणे॥ - मूलाचार, 268
जिसके द्वारा जीव राग से विरक्त होता है, जिसके द्वारा मोक्ष में राग करता है, जिसके द्वारा मैत्री को भावित करता है, जिन-शासन में वह ज्ञान कहा जाता है।
जस्स रागो य दोसो य वियडिं ण जणेति द। जेण कोधो य माणो य माया लोहो य णिज्जिदो॥ - मूलाचार, 527
जिस जीव के राग और द्वेष विकार को उत्पन्न नहीं करते हैं तथा जिन्होंने क्रोध, मान, माया और लोभ को जीत लिया है, उनके ही सामायिक चरित्र होता है।
समयसार में तो वास्तविक ज्ञान की परिणति त्याग रूप ही बतलायी गयी है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है