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अनेकान्त-55/4
हिमअणलसलिलगुरुयरपव्वतरुरुहणपउयणभंगेहि। रसविज्जोयधराणं अणयपसंगेहिं विविहेहि। 26॥ -भावपाहुड
अर्थात्- विष भक्षण से, वेदना की पीड़ा के निमित्त से, रुधिर के क्षय हो जाने से, भय से, शस्त्रघात से, संक्लेश परिणाम से, आहार तथा श्वास के निरोध से, आयु का क्षय हो जाता है और हिमपात से, अग्नि से जलने के कारण, जल में डूबने से, बड़े पर्वत पर चढ़कर गिरने से, बड़े वृक्ष पर चढ़कर गिरने से, शरीर का भंग होने से, पारा आदि रस के संयोग (भक्षण) से आयु का व्युच्छेद हो जाता है।
आचार्य शिवार्य सल्लेखना लेने वाले भव्यात्मा को संबोधन करते हुए कहते हैं
इय तिरिय मणुयं जम्मे सुइदं उववज्झि ऊण बहुबा। अवमिच्चु महादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्तं॥ 26।। - भगवती आराधना
हे मित्र! इस प्रकार तिर्यञ्च और मनुष्य जन्म में चिरकाल तक अनेक बार उत्पन्न होकर तू अपमृत्यु के महादु:ख को प्राप्त हुआ है।
उक्त कथन अकालमरण की मान्यता में साधक ही हैं, बाधक नहीं हैं। आयु कर्म है इसका पूर्ण होने से पूर्व ही उदय में आना उदीरणा है। किसी भी कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में ही होती है। यह उदीरणा भुज्यमान तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु की सर्व सम्मत है किन्तु भुज्यमान देवायु और नरकायु की भी उदीरणा सिद्धान्त में मिलती है जैसा कि लिखा भी है “संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्व आऊणं" (गोम्मट. कर्म गा. 441) एक संक्रमण को छोड़कर बाकी के बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उदय, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना ये नवकरण सम्पूर्ण आयुओं में होते हैं।
किसी भी कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में ही होती है उदीरणा को परिभाषित करते हुए नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है "उदयावली के द्रव्य से अधिक स्थिति वाले द्रव्य को अपकर्षण के द्वारा उदयावली में डाल देना उदीरणा है।''(।) इससे निष्कर्ष निकला कि कर्म की उदीरणा उसके उदय हालत में ही हो सकती है अथवा अनुदय प्राप्त कर्म को उदय में लाने को