Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 267
________________ 60 अनेकान्त-55/4 अनन्तर होने वाले आयु कर्म का उदय होकर उसके क्षय के कारण जो मरण होता है, उसको अकालमरण या अपमृत्यु कहते हैं। जो मरण आयु कर्म के पूर्वबन्ध के अनुसार अपवर्तन के अभाव में होता है, वही स्वकालमरण है। ___ शास्त्रों में स्वकालमरण और अकालमरण दोनों का व्याख्यान है, किन्तु नियतिवाद के पोषक एकान्तवादी विद्वानों ने पर्यायों की नियतता को सिद्ध करने के लिए शास्त्रों में वर्णित अकालमरण जैसे विषय का निषेध करना शुरु किया। ऐसा करना मुझे सोद्देश्य लगता है क्योंकि लोगों को संसार शरीर भोगों से भयभीत न रहने की प्रेरणा और पुरुषार्थहीन बनाना उनका उद्देश्य रहा है, जिससे भोग विलासिता में लिप्त रहते हुए भी उन्हें बिना त्याग और तप के धर्मात्मा माना जाना जाय। संसार शरीर से राग करने वाले वे लोग महात्मा, सत्पुरुष कहलायें ऐसे लोगों के मन्तव्य को पुष्ट करने हेतु डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल द्वारा लिखित "क्रमबद्ध पर्याय' नामक पुस्तक जबसे प्रकाशित हुई तभी से विशेष रूप से लोगों को "अकालमरण' नहीं होता है, यह मतिभ्रम हुआ है, क्योंकि इस पुस्तक में आचार्य प्रणीत ग्रन्थों की उपेक्षा कर क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि हेतु अकालमरण का निषेध किया गया है, केवल कालमरण को ही माना है, जो व्यवहारनय के विपरीत है। आचार्यों ने निश्चय-व्यवहार का आश्रय लेकर ही सर्वत्र व्याख्यान किया है, उन्होंने "अकालमरण' के विषय में जो कहा है, वहीं यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रायः सभी आर्ष ग्रन्थों में अकालमरण को माना गया है। पञ्च समवाय ही कार्य साधक हैं। अकेले नियति से सिद्धि नहीं होने वाली है। कार्य की सिद्धि के लिए निमित्त और पुरुषार्थ की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। कुछ ऐसे निमित्त जीव को मिलते हैं, जिनके कारण भुज्यमान आयु की उदीरणा हो जाती है और जीव का समय से पूर्व अकाल में ही मरण हो जाता है। इसी को शास्त्रीय प्रमाणों सहित प्रस्तुत किया जा रहा है आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अकालमरण के निम्न कारण बतलायें हैंविसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणं संकिलेसाणं। आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जदे आऊ॥ 25॥

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