Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 264
________________ अनेकान्त-55/4 परिग्रह के दुखद परिणामों को आज विश्व-समाज भोग रहा है। धन-लोलुपता तथा भौतिक तुष्टि के लिए आज विश्व समाज अनेक वादो में विभक्त हो गया है जैसे पूंजीवादी, साम्यवादी, समाजवादी, प्रजातान्त्रिक समाजवादी, विकसित समाज, विकासशील समाज तथा अविकसित समाज। इन समाजों के बीच स्पर्धा, प्रतिद्वन्द्विता ने उन भौतिक उपलब्धियों वश विश्व समाज को तनावों, विषमताओं, ध्वंसात्मक विकृत्तियों ने एक दूसरे को आर्थिक शोषण के लिए आतुर कर दिया है। आज समाज में भ्रष्टाचार, मिलावट, चोर-बाजारी, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, काला धन्धा, तस्करी आदि विकृतियों से सर्वत्र अविश्वास का वातावरण व्याप्त है। अवैध तरीकों से धन प्राप्त करना ही मनुष्य का एकमात्र ध्येय हो गया है। ऐसी स्थिति में भगवान् महावीर का परिग्रह परिमाण व्रत ही समाधान देने में समर्थ है। परिग्रह त्याग महाव्रत में अंतरंग एवं बहिरंग सभी परिग्रहों का त्याग रहता है परन्तु गृहस्थ परिग्रह का पूर्ण त्याग नहीं कर सकता। वह अपनी आवश्यकता के अनुसार सीमा निश्चित कर सकता है। गृहस्थ की आवश्यकतायें भिन्न-भिन्न प्रकार की हुआ करती हैं। किसी का परिवार बड़ा है अत: उसे अधिक परिग्रह रखना पड़ता है। इसलिए परिग्रह परिमाण व्रत को इच्छा परिमाण नाम भी दिया है आचार्य समन्भद्र ने लिखा है धनधान्यादि ग्रन्थ परिमाय ततोऽधिकेषु नि:स्पृहता। परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि।। -रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 3-15 -धन-धान्यादि परिग्रह का परिमाण कर उससे अधिक में इच्छा रहित होना परिमित परिग्रह अथवा इच्छा परिमाण नामक अणुव्रत होता है। ___परिग्रह परिमाण से अस्तेय व्रत का भी परिपालन संभव है। चोरी अथवा शोषण का उद्गम संचय वृत्ति तथा स्वयं परिश्रम न करने की वृत्ति में होता है। संग्रह की भावना वश व्यक्ति झूठ बोलता है, चोरी करता है, कम तौलता-नापता है, छल-कपट करता है, धोखा देता है, षड्यन्त्र करता है, हत्यायें करता है और यहां तक कि भीषण युद्ध भी करता है। अत: इनका

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