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अनेकान्त-55/4
णाणं सव्वे भावे पच्चक्खाई परेत्ति णादूण। तह्मा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं॥ -समयसार, 39
यह आत्मा जब अपने से भिन्न पदार्थो को पर जान लेता है तब उन्हें उसी समय छोड़ देता है अत: वास्तव में ज्ञान ही प्रत्याख्यान है। इसी गाथा की टीका में लिखा है- 'जानाति इति ज्ञानं' इस प्रकार ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति है। अत: स्वसंवेदन ज्ञान ही आत्मा नाम से कहा जाता है। वह ज्ञान जब मिथ्यात्व और रागादि भावों को ये परस्वरूप हैं ऐसा जान लेता है, तब उन्हें छोड़ देता है, उनसे दूर हो जाता है। इसलिए निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान ही नियम से प्रत्याख्यान है ऐसा मानना, जानना और अनुभव करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि परम समाधि काल में स्वसंवेदन ज्ञान के बल से आत्मा अपने आप को शुद्ध अनुभव करता है। यह अनुभव ही निश्चय प्रत्याख्यान है।
ज्ञानी विचार करता हैअहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी।
णवि अस्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणुमित्तं पि॥ -समयसार, 43 __ मैं एकाकी हूँ, शुद्ध हूँ अर्थात् परद्रव्य के सम्बन्ध से सर्वथा रहित हूँ, दर्शन-ज्ञानमयी हूँ और सदा अरूपी हूँ अन्य परद्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा कुछ भी नहीं लगता। सामाजिक वृत्ति में अपरिग्रह की भूमिका- भगवान् महावीर ने अपने समग्र जीवन में अनासक्ति या अपरिग्रह की वृत्ति को चरितार्थ कर शाश्वत सत्य को प्राप्त किया, परन्तु सभी व्यक्ति पूर्ण रूप से निवृत्त तो नहीं हो सकते अत: वे कैसे अपना जीवन-यापन करें इसके लिए भगवान् महावीर ने संग्रह के सीमाकरण तथा इच्छा परिमाण के महत्वपूर्ण सूत्र दिये जिनसे सामाजिक सन्तुलन बना रह सकता है। मनुष्य की इच्छायें असीम हैं, पदार्थ सीमित हैं। वह जो चाहता है प्रायः वह होता नहीं है और जो होता है वह चाहता नहीं। वर्तमान में भोगोपभोग की वस्तुओं के सीमाकरण से ही शोषण-विहीन समाज की स्थापना संभव हो सकती है।