Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 259
________________ अनेकान्त-55/4 हित और अहित, कार्य और अकार्य, वर्ण्य और अवर्ण्य का अविवेक मोह है। जो मोह ग्रस्त होता है वह मूढ़ है। मूढ़ता के कारण वह पुरुष नहीं जानता कि सुख के लिए किया जाने वाला प्रयत्न वस्तुतः दु:ख के लिए होगा। इसलिए वह अपने तथा दूसरों के सुख के लिए पृथ्वीकाय आदि जीव-निकायो की हिंसा करता है। उसका परिणाम है कि वह दीर्घ काल तक दु:ख का अनुभव करता है। इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि सोचता है मझं परिग्गहे जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज। णादेव अहं जह्या तह्मा ण परिग्गहो मज्झ॥ समयसार 215 यदि यह शरीरादिक परिग्रह भी मेरे हो जायें तो फिर मैं भी अजीवपने को प्राप्त हो जाऊं। किन्तु मैं तो ज्ञाता ही हूँ इसलिए यह सब मेरे परिग्रह नहीं है। छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं। जह्या तह्मा गच्छदु तहावि ण परिग्गहो मज्झं॥ समयसार 218 यह शरीरादिक पर-द्रव्य भले ही छिद जावो, भिद जावो अथवा कोई इसे ले जावो, अथवा नष्ट तो जाओ तो भी यह मेरा परिग्रह नहीं है यह निश्चित है। इस प्रकार विचार कर ज्ञानी तो अपने स्वस्थ स्वभाव में रहता है। । भगवान् महावीर की समग्र साधना आत्मकेन्द्रित थी। साधना-काल में अनेकों अज्ञानियों के द्वारा कष्ट दिये गये परन्तु उन्होंने अपने लक्ष्य पर मेरु के समान अडिग रहकर प्रतिकूलता में भी अनुकूलता का अनुभव कर मोक्ष-लक्ष्मी को वरण किया। उनकी वृत्ति में समयसार की वह दृष्टि साक्षात घोतित हुई एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। एदेण होहि तित्तो तो होहदि उत्तमं सोक्खं॥ -समयसार 219 हे आत्मन्! यदि तूं सुख चाहता है तो उसी आत्मानुभव रूप ज्ञान में तल्लीन होकर रह। उसी में सदा के लिए सन्तोष धारण कर और उसी के द्वारा तृप्त हो, सब इच्छाओं को छोड़ तभी शाश्वत सुख प्राप्त होगा।

Loading...

Page Navigation
1 ... 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274