Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 258
________________ अनेकान्त-55/4 जैसे-जैसे भोगों का सेवन करते हैं वैसे-वैसे तृष्णा बढ़ती है जैसे ईंधन के संयोग से अग्नि बढ़ती है। लोभ पाप का मूल है और लोभ का मूल तृष्णा है जो संसारी जीव को निरन्तर संतप्त करती रहती है। स्वयम्भूस्तोत्र में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने लिखा हैतृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासा मिष्टेन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव। स्थित्यैव कायपरितापहर निमित्त मित्यात्मवान् विषयसौख्यपराडमुखोऽभूत्॥ तृष्णारूप अग्नि की ज्वालायें संसारी जीव को चारों ओर से जलाती हैं। अभिलषित इन्द्रिय विषयों के वैभव से इनकी शान्ति नहीं होती है, किन्तु सब ओर से वृद्धि ही होती है क्योंकि इन्द्रिय विषयों का स्वभाव ही ऐसा है। इन्द्रिय विषय शरीर के सन्ताप को दूर करने में निमित्त मात्र है। ऐसा जानकर श्री कुन्थु विषय सौख्य से परान्मुख हो गये थे। सुखवादी मनोवृत्ति का विकास परिग्रह के विस्तार का निमित्त है। सुखपूर्वक जीवन यापन करने के लिए व्यक्ति अनेक प्रकार के बलों को संग्रह करता है। परिग्रह का सुखपूर्वक उपयोग करने के लिए शारीरिक संहनन को मजबूत और शक्ति सम्पन्न बनाने के लिए आत्म-बल का संग्रह करता हैं आत्म बल का तात्पर्य है शरीर। शरीर का समुचित संपोषण करने के लिए मद्य आदि का सेवन करता है। इनकी प्राप्ति और सुरक्षा के साधन जुटाता है, उसके पीछे परिग्रह और सुखवादी मनोवृत्ति काम करती है। आचारांग में लिखा हैसुहट्ठी बालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति।। 2/15 सुख का अर्थी बार-बार सुख की कामना करता है। वह अपने द्वारा कृत दुःख-कर्म से मूढ़ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है। सुख का अर्थी होकर दु:ख को प्राप्त करता है।

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