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अनेकान्त-55/4
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जीवादि पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान न करना मिथ्यात्व है। स्त्री-वेद कर्मोदय से पुरुष में अभिलाषा होना स्त्री-वेद है। पुरुष-वेद कर्मोदय से स्त्री में अभिलाषा होना स्त्री-वेद है। नपुंसक वेद कर्मोदय से स्त्री-पुरुष में अभिलाषा होना नपुंसक-वेद है। हास्य, रति, अरति, शोक भय, जुगुप्सा ये 6 दोष हैं। क्रोध, मान. माया, लोभ ये चार कषाय हैं। सर्व अन्तरंग परिग्रह के चौदह भेद हैं। बाह्य परिग्रह के 10 भेद हैं- यथा
बाहिरसंगा खेत्तं वत्थं धणधण्णकुप्पभंडाणि। दुपयचउप्पय जाणाणि चेव सयणासणे य तहा॥ भ. आ. 1119
क्षेत्र, वास्तु (घर), धन (स्वर्णादि धातु), धान्य (गहू आदि), कुप्य (वस्त्र), भांड (हींग, मिर्च आदि), दास, दासी (सेवक), चौपद (हाथी, घोड़ा आदि), यान (पालकी, विमान आदि), शासन (बिधान), आसन (पलंग वगैरह) ये दश परिग्रह हैं।
स्थानांग सूत्र में परिग्रह के तीन प्रकार बतलाये हैं। उनमें पहला प्रकार है शरीर। परिग्रह का मूल आधार है शरीर। दूसरा कारण और प्रकार है-कर्म संस्कार। जो संस्कार हमने अर्जित कर रखे हैं, वे संस्कार ही मनुष्य को परिग्रही बनने के लिए प्रेरित करते हैं। हिंसा के लिए प्रेरित करते हैं। तीसरा प्रकार है परिग्रह। जब अपरिग्रह पर विचार किया जाता है तो पहला सिद्धान्त निश्चित हुआ ममत्व चेतना का परिष्कार। आचारांग में लिखा है
जे ममाइय-मतिं जहाति, से जहाति ममाइयं॥ सूत्र 2/156 __ जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वह परिग्रह का त्याग कर सकता है। जब तक चेतना का रूपान्तरण नहीं होता तब तक परिग्रह की तरफ होने वाली मूर्छा कम नहीं हो सकती।
अपरिग्रह व्रत की भावनाओं पर प्रकाश डालते हुए लिखा हैअपरिग्गह समणुण्णेसु सदपरिसरसरूवगंधेस। रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होंति॥ -चारित्तपाहुड, 36