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अनेकान्त-55/4
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उत्कट अभिलाषा के कारण सांसारिक मोह माया का जाल वर्द्धमान को किञ्चित् भी विचलित नहीं कर सका। उनके जीवन का लक्ष्य आत्मिक शान्ति के साथ संसार के प्राणियों को शान्ति प्रदान करना था। उन्होंने स्वयं को साधना की कसौटी पर कसा और अनुभूत चिन्तन के परिणाम स्वरूप ऐसे मूल्यों की प्रतिष्ठा की जिसमें सर्वत्र सुख और शान्ति का समीर प्रवाहित हो सकता है।
भगवान् महावीर ने जिन चिरन्तन सत्य मूलक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। वे हैं- अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह। यहां हम भगवान् महावीर के अपरिग्रह विषयक चिन्तन को ही प्रमुख रूप से वर्णन कर रहे हैं- जो आदर्श समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
आचारांग के उपधान श्रुत नामक अध्याय में लिखा है
भगवं च एवं मन्नेसिं, सोवहिएं हु लुप्पती बाले । कम्मं च सव्वसो णच्चा, तं पडियाइक्रवे पावगं भगवं ॥ 9/1-15
- अज्ञानी मनुष्य परिग्रह का संचय कर छिन्न-भिन्न होता है इस प्रकार अनुचिन्तन कर तथा सब प्रकार के कर्म को जानकर भगवान् ने प्रत्याख्यान किया।
अकसाई विगयगेही सदरुवेसुमुच्छिए झाति । 63 मक्खे वि परक्कमपाणे, णो पमायं सइं वि कुव्वित्था ॥ 9/4-15
भगवान् क्रोध, मान, माया, लोभ को शांतकर, आसक्ति को छोड़, शब्द और रूप में अमूर्च्छित होकर ध्यान करते थे। उन्होंने ज्ञानावरण आदि कर्म से आवृत दशा में पराक्रम करते हुए भी एक बार प्रमाद नहीं किया।
परिग्रह क्या है- आचारांग में लिखा है
आवंती के आवंती लोगंसि परिग्गहावंती से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चिन्तमंतं वा, अचिन्तमंतं वा एतेसु चेव परिग्गहावंती |