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अनेकान्त/55/3
होता है। कुन्दकुन्दाचार्य एवं स्वामी कार्तिकेय ने उनका कोई वर्णन नही किया है। परवर्ती आचार्यों का वर्णन प्रायः तत्त्वार्थसूत्र एवं रत्नकरण्ड-श्रावकाचार के वर्णन से प्रभावित है। अणुव्रतों की आज के सन्दर्भ में उपयोगिता :- आज मानव की हिंसा चरम सीमा पर है। विश्व भर में आतंकवाद तेजी से फैलता जा रहा है। अण्डा, मांस, मछली अब व्यापारिक वस्तु बन गई है तथा बूचड़खाने कमाई के साधन बन रहे हैं। ऐसी स्थिति में अहिंसाणुव्रत का परिपालन ही हमारी रक्षा कर सकता है। अन्यथा प्रत्येक देश को वैसी त्रासदी झेलना पड़ सकती है जैसी अभी 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका ने झेली है। चोरी कराके, चोरी का माल खरीदकर, आयकर एवं बिक्रीकर आदि में घपला करके, कमती-बढ़ती माप-तौल रखके तथा महंगी वस्तु में सस्ती वस्तु की मिलावट करके लोग रातों-रात करोड़पति बनने के सपने संजो रहे हैं तथा रेत की दीवारों के महल बना रहे हैं। जनसंख्या के अनुपात में जैनों का प्रतिशत अब कम नही है। उन्हें अचौर्याणुव्रत की भावनायें भाकर अतिचारों से बचने की प्रयास पूर्वक आवश्यकता है। 'शीलं परं भूषणम्' का भाव अब समाज में कहीं-कहीं ही दिखाई दिया करता है। उत्साहपूर्वक रावण का पुतला जलाने वाले लोग ही रावण का आचरण करते लजाते नही हैं। स्वपत्नी संतोष न रहने के कारण ही अमर्यादित मैथुन के कारण विश्व एड्स जैसी खतरनाक बीमारियों की गिरफ्त में आ गया है। बलात्कार और उसके बाद हत्या अब प्रत्येक नगर का प्रमुख समाचार बन गया है। व्यक्ति भोगविलास को ही अपना लक्ष्य समझ रहा है। ऐसी दशा में स्वपत्नीसन्तोष/स्वपतिसन्तोष व्रत ही एक मात्र इन समस्याओं का सार्थक समाधान प्रस्तुत कर सकता है। आचार्यों ने परिग्रह को सभी पापों का बाप कहा है, किन्तु आश्चर्य तो यह है कि परिग्रह में लिप्त मनुष्य का अब परिग्रह को पाप मानने तक में विश्वास नही रहा है। जरूरत से अधिक वस्तुओं के संग्रह ने अन्य व्यक्तियों को अभाव में जीने के लिए मजबूर कर दिया है। पर्याप्त अन्न भण्डार होने पर भी उड़ीसा में लोग भूख के कारण मर रहे हैं। यदि हम वास्तव में ही 'जिओ और जीने दो' की भावना रखते हैं तो हमें अपनी इच्छाओं को सीमित करके परिग्रहपरिमाण अणुव्रत अपनाना ही होगा।