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तीर्थंकर भगवान् महावीर और उनका अपरिग्रह दर्शन
-डॉ. अशोककुमार जैन भारत के प्राचीन धर्मों में जैनधर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। जैनधर्म के प्रतिष्ठापक तीर्थद्ध.रों ने नैतिक एवं आध्यात्मिक आदर्शों के उन प्रतिमानों को स्थापित किया जो व्यष्टि एवं समष्टि के विकास में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव मानव संस्कृति के सूत्रधार बने। उन्होंने भोगमूलक संस्कृति के स्थान पर कर्ममूलक संस्कृति की प्रतिष्ठा की। दैववाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद की मान्यता को संपुष्ट किया। उन्हीं की परम्परा में अन्य 23 तीर्थंकर हुए जिन्होंने अपने लोकातिशायी व्यक्तित्व एवं कृतित्व से वैयक्तिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चेतना का सञ्चार
किया।
अन्तिम तीर्थंकर महावीर का समय जनक्रान्ति और धर्मक्रान्ति का युग था। इस युग में राजनीति, समाज एवं धर्मसम्बन्धी मान्यतायें परिवर्तित हो रहीं थी। प्रसिद्ध इतिहासकार एच. जी. वेल्स का अभिमत है कि ई. पू. छठी शताब्दी संसार के इतिहास में महत्त्वपूर्ण काल है। इस शताब्दी में मनुष्य की चेतना सर्वत्र रूढ़िवादी परम्पराओं के बदलने के लिए क्रियाशील थी। प्रत्येक विचारक रूढ़ियों, बुराइयों और स्वार्थो का ध्वंश कर मानवता की नई प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्नशील था। भगवान् महावीर के तीर्थ के सम्बन्ध में जयधवल के प्रारम्भ में लिखा है
णिस्संसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो।
राग-दोस-भयादीदो धम्मतित्थस्स कारओ॥ जिन्होंने धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करके समस्त प्राणियों को नि:संशय किया,