Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 249
________________ अनेकान्त-55/4 अज्ञानी है, श्रमण नहीं (लिं. पा. 17)। जो मुनि स्त्रियों के समूह में उनका विश्वास करके और उनको विश्वास उत्पन्न कराके दर्शन-ज्ञान-चारित्र को देता है, उनको सम्यक्त्व बताता है, पढ़ना-पढ़ाना, ज्ञान-दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता है, इस प्रकार विश्वास उत्पन्न कर प्रवर्तता है वह पार्श्वस्थ मुनि से भी निकृष्ट है प्रगट भाव से विनष्ट है, श्रमण नहीं है (लिंग पा. गा. 20)। जो जिन मुद्रा धारण कर व्यभिचारणिी स्त्री के घर आहार कराता है, स्तुति करता है वह अज्ञानी है, धर्म से भ्रष्ट है, श्रमण नहीं है (लिंग. पा. गा. 21) पुनश्च जो साधु-गृहस्थों के विवाहादिक कराता है, कृषि-व्यापार एवं जीवघात आदि पाप कार्य करता है, चोरी-झूठ-युद्ध-विवाद करता है,, शतरंज-पासा आदि खेलता है वह नरकगामी होता है (लि. पा. गा. 9/10)। उपसंहार : जिनेन्द्र भगवान् का वीतराग मार्ग विशिष्ट मार्ग है। अंतरंग में जिनदर्शन रूप आत्म-श्रद्धान-आत्मरुचि होने पर उक्तानुसार जिनभेष सहज ही बाह्य में प्रकट होते है। मुनिभेष में अंतरंग में तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक निर्मल परिणति प्रकट होती है और बाह्य में सम्पूर्ण परिग्रह एवं स्त्री त्याग सहित आगम प्रणीत आचरण होता है। इसी प्रकार ग्यारह प्रतिमाधारी ऐलक-आर्यिका आदि के भेष में अंतरंग में दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक विशुद्ध परिणति प्रकट होकर आगमानुसार बाह्य आचरण होता है तथा आचार्य मुनियों एवं आर्यिका तथा नारीजगत् के प्रति मूलाचार के निर्देशों के अनुरूप मर्यादित संयमित व्यवहार होता है तभी सभी जन आदरणीय-अभिनंदनीय होते है। आगम के दर्पण में सभी को अपनी भूमिका देखकर निर्णय करना है कि उनका चिह्व-भेष जिनलिंगी है या जैनेतर-लिंगी है। -वी-369 ओ. पी. एस काकोनी अमलाई पेपर मील

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