Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 247
________________ 40 अनेकान्त-55/4 जाना चाहिये (गा. 192)। आर्यिकाओं को रोना, नहलाना, खिलाना, भोजन पकाना, सूत कातना, छह प्रकार का आरम्भ, यतियों के पैर मालिश करना, धोना और गीत गाना आदि कार्य नहीं करना चाहिये (गाथा 193)। आहार हेतु तीन या पांच या सात आर्यिकाएं आपस में रक्षा करती हुई वृद्धा आर्यिकाओं के साथ मिलकर उनका हमेशा आहार को निकलना युक्त है (गा. 194)। मुनि-आर्यिका के संसर्ग-निषेध का कारण/दर्शन : ___मूलाचार में मुनि-आर्यिका एवं अन्य नारियों के संसर्ग का निषेध कर उसका कारण/दर्शन भी व्यक्त किया है, जिसको समझना आवश्यक है। कारण को जाने बिना निर्णय समीचीन नहीं होता। __यह जीव धन, जीवन, रसना-इन्द्रिय और कामेन्द्रिय के निमित्त से हमेशा अनंत बार स्वयं मरता है और अन्यों को भी मारता है (989)। चार-चार अंगुल की जिह्वा और कामेन्द्रिय अशुभ है और इनसे जीव निश्चित रूप से दुःख प्राप्त करता है (गा. 994)। अत: हे मुनि, तुम इसी समय इस रसनाइन्द्रिय और काम-इन्द्रिय को जीतो (गा. 990)। काठ (लेप, चित्र आदि कलाकृति) में बने हुये स्त्री रूप से भी हमेशा डरना चाहिये क्योंकि इनसे जीव के मन में क्षोभ हो जाता है (गा. 992)। पुरुष घी के भरे हुये घट जैसा है और स्त्री जलती हुई अग्नि जैसी है। स्त्रियों के समीप हुये पुरुष नष्ट हो गये हैं तथा इनसे विरक्त पुरुष मोक्ष को प्राप्त हुये हैं (गा. 993)। ___ माता, बहिन, पुत्री, मूक व वृद्ध स्त्रियों से भी नित्य ही डरना चाहिये क्योंकि स्त्री रूप में सभी स्त्रियां अग्नि के समान सर्वत्र जलाती हैं (गा. 998)। हाथ पैर से लूलीं-लंगड़ी, कान-नाक से हीन तथा वस्त्ररहित स्त्रियों से भी दूर रहना चाहिये (गा. 995)। ___ब्रह्मचर्य मन-वचन-काय की अपेक्षा तीन प्रकार का है तथा द्रव्य भाव के भेद से दो प्रकार का है (गा. 996)। भाव से विरत मनुष्य ही विरत है। केवल द्रव्य विरत से मुक्ति नहीं होती। इसलिये पंचन्द्रिय के विषयों में रमण करने वाले मन को वश में करना चाहिये (गा. 997)। अब्रह्म के दश भेद हैं

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