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अनेकान्त-55/4
उक्त दो मुनिराज वृषभसेन एवं बाहुबलि जयपुर में मोहनबाड़ी में कहां से विहार करते हुए आये, किंतु रचना के ऐतिहासिक होने में कोई संदेह प्रतीत नहीं होता। रचना में जयपुर के तत्कालीन विभिन्न पुरुषों, जैन दीवानों का तिथिवार महत्त्वपूर्ण उल्लेख है, जो तथ्यात्मक है। रचना से तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, मुनियों के प्रति श्रद्धा, आगमानुसार मुनिचर्या स्वयं दीक्षित हो जाना, तीर्थ यात्राओं के प्रति रुझान, मुनियो की आज्ञा का पालन, आहार के पूर्व शुद्धि करना, मार्ग में भोजन आदि की व्यवस्था के लिये संघ में परिग्रह साथ रहना, अजैनों द्वारा जिन दीक्षा लेना, अलवर में नग्न मुनि पर उपसर्ग होना तथा मुनिराज को तीन दिन ताले में बंद रखना, जयपुर, आमेर, साईवाड़, मथुरा, सुनारा, उवरा आदि ग्रामों की जानकारी तथा साधुओं के प्रति अटूट श्रद्धा का पता चलता है।
यदि ऐसी रचनाएँ और भी मिलें तो प्रकाश में लाने की महती आवश्यकता है। नोट - रचना में जयपुर के सं. 1880 से 1890 के बीच में होने वाले विशिष्ट व्यक्ति वैद हीरालाल संगही, स्वरूप चन्द पाटनी, बिरधीचन्द संघी मालावत, अमरचन्द दीवान, आरतराम सोनी, प्रमुख नगर आमेर सांगानेर जयपुर तथा प्रसिद्ध नाटाणी के बाग का उल्लेख आदि प्रामाणिक तथ्य हैं।
1 हल्दियो के रास्ते में ऊँचा कुआ के सामने श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन मदिर को दरोगा सरूपचन्द पाटनी खिन्दूका ने स 1888 मे बनवाया था।
769-गोदीकों का रास्ता किशनपोल बाजार जयपुर-302003