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श्रमण परम्परा के वंदनीय साधक और उनके मध्य सम्बन्ध : एक समीक्षा
- डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल
विश्व के समस्त धर्म-दर्शनों में जैन दर्शन ही समस्त जीवात्माओं को स्वभाव से वीतराग, सर्वज्ञ एवं परम आनंद रूप बताकर उसकी प्राप्ति का मार्ग बताता है। दुःख के जनक हैं- कुज्ञान, कषाय, कंचन और कामिनी की अभिलाषा, इसे ही पर - समय कहा है। आनंद प्राप्ति का मार्ग है आत्मज्ञानपूर्वक कषाय, कंचन, कामिनी का परित्याग एवं शुद्धोपयोग रूप आत्मध्यान, यही स्व- समय है। इसी कारण मुक्ति का आराधक साधु परिग्रह और स्त्री का त्यागी होता ही है। (मूलाचार - 1008)।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने जैनदर्शन में मात्र तीन भेष-लिंग स्वीकार किये हैं-पहला जिनभेष रूप साधु, दूसरा उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक) एवं तीसरा जघन्य पद में स्थित आर्यिका । जिनमत में चौथा भेष नहीं है ( दर्शनपाहुड गाथा - 18 ) । 1: वंदनयोग्य साधु :
जो पांच महाव्रत, तीन गुप्ति एवं संयम को धारण करते हैं तथा अंतर - बाह्य परिग्रह से रहित हैं वे वंदने योग्य साधु हैं । यही निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग है । अत्यल्प परिग्रह रखने वाला महाव्रती और संयमी नहीं हो सकता। वह तो गृहस्थ के समान भी नहीं है (सूत्रपाहुड - गाथा 20 ), अत्यल्प परिग्रह ग्रहण करने वाले साधु निगोदगामी निंदायोग्य और अवंदनीय होते हैं (सू. पा. गा. 18 - 19 ) ।
आचार्य वट्टकेर के अनुसार साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और शक्ति को अच्छी तरह समझकर भली प्रकार ध्यान, अध्ययन और चारित्र का आचरण करते हैं (मूलाचार 1007) | ज्ञान-विज्ञान से समपन्न और ध्यान, अध्ययन तप से युक्त तथा कषाय और गर्व से रहित मुनि शीघ्र ही संसार को पार कर लेते