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अनेकान्त/55/3
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क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप और पाप से नरक गति होती है। उस नरक गति में अकथनीय अत्यन्त दुःख होता है। यह विशेष खेद की बात है कि लोग हिंसादि चार को तो पाप मानते हैं, पर परिग्रह को पाप समझते ही नहीं है, जबकि वह सभी पापों की जड़ है। समन्तभद्राचार्य के अनुसार धन-धान्य आदि परिग्रह को परिमित करके कि 'इतना रखेंगे' फिर उससे अधिक की इच्छा न रखना सो परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। इसे इच्छा परिमाण व्रत भी कहा गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि जो लोभ कषाय को कम करके सन्तोष रूपी रसायन से संतुष्ट होता हुआ सबको विनश्वर जानकर दुष्ट तृष्णा का नाश करता है और आवश्यकता को जानकर धन-धान्य, सुवर्ण, क्षेत्र आदि का परिमाण करता है, उसके यह पाँचवां अणुव्रत होता है। 45 परिग्रहत्याग अणुव्रत में तो धन-धान्यादि का आवश्यकतावश परिमाण किया जाता है, जबकि परिग्रह त्याग प्रतिमा में इनका त्याग किया जाता है। 46 परिग्रह परिमाणाणुव्रत के अतिचार :- तत्त्वार्थसूत्रकार ने क्षेत्र एवं वास्तु के प्रमाण के अतिक्रमण, सोना-चाँदी के प्रमाण के अतिक्रमण, धन-धान्य के प्रमाण के अतिक्रमण दासी-दास के प्रमाण के अतिक्रमण और कुप्य अर्थात् वस्त्र एवं भाण्ड के प्रमाण के अतिक्रमण को परिग्रह परिमाणाणुव्रत के पाँच अतिचार कहे हैं। 47 समन्तभद्राचार्य के अनुसार प्रयोजन से अधिक सवारी रखना, आवश्यक वस्तुओं का अधिक संग्रह करना, दूसरों का वैभव देखकर आश्चर्य करना, बहुत लोभ करना तथा बहुत भार लादना ये पाँच परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के अतिचार हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि तत्त्वार्थसूत्र प्रतिपादित पाँचों अतिचार तो एक अतिक्रमण नाम में ही ग्रहीत हो सकते थे। अत: उनकी पञ्चरूपता की सार्थकता के लिए ही समन्तभद्राचार्य मे स्वतन्त्र रूप से पाँच अन्य अतिचारों का प्रतिपादन किया है। परिग्रहपरिमाणाणु व्रत की भावनायें :- पाँचों इन्द्रियों के इष्ट विषयों में राग एवं अनिष्ट विषयों में द्वेष नहीं करना अपरिग्रह व्रत की भावनायें हैं। इन्हें यथायोग्य महाव्रत एवं अणुव्रत में संगत करना चाहिए।
व्रतों की भावनाओं एवं अतिचारों का वर्णन सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र में प्राप्त