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अनेकान्त-55/4
इसलिये विधि की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है और वह सर्वात्मक नहीं है, अतः निषेध की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है। जैसे विधि वस्तु का धर्म है वैसे ही निषेध भी वस्तु का धर्म है। स्व-द्रव्य की अपेक्षा से घट का अस्तित्व है। यह विधि है। पर प्रत्यय भी है। यह निषेध है। इसका अर्थ यह हुआ कि निषेध आपेक्षिक पर्याय है-दूसरे के निमित्त से होने वाली पर्याय है। किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। निषेध की शक्ति द्रव्य में निहित है। द्रव्य यदि अस्तित्वधर्मी हो और नास्तित्वधर्मी न हो तो वह अपने द्रव्यत्व को बनाए नहीं रख सकता। निषेध 'पर' की अपेक्षा से व्यवहत होता है, इसलिये उसे आपेक्षिक या पर-निमित्तक पर्याय कहते हैं। वह वस्तु के सुरक्षा-कवच का काम करता है; एक के अस्तित्व में दूसरे को मिश्रित नहीं होने देता। 'स्व-द्रव्य की अपेक्षा से घट है' और 'पर द्रव्य की अपेक्षा से घट नहीं है'-ये दोनों विकल्प इस सच्चाई को प्रकट करते हैं कि घट सापेक्ष है। वह सापेक्ष है इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि जिस क्षण में उसका अस्तित्व है उस क्षण में उसका नास्तित्व नहीं है। अस्तित्व और नास्तित्व (विधि ओर निषेध)-दोनों युगपत् हैं। किन्तु एक क्षण में एक साथ दोनों का प्रतिपादन कर सके-ऐसा कोई शब्द नहीं है। इसलिये युगपत् दोनों धर्मों का बोध कराने के लिये अवक्तव्य अंग का प्रयोग होता है। इसका तात्पर्य यह है कि दोनों धर्म एक साथ हैं, किन्तु उनका कथन नहीं किया जा सकता है।''
उक्त विवेचन का सार यह है कि स्याद्वाद के अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य आदि अंग;घटवस्तु के द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा पर्याय पर निर्भर करते हैं। घट जिस द्रव्य से निर्मित है, जिस क्षेत्र, काल और पर्याय में है, उस द्रव्य, क्षेत्र, काल और पर्याय की दृष्टि से अन्य-काल और अन्य-पर्याय की अपेक्षा से उसका नास्तित्व है। इस प्रकार घट में अस्तित्व-नास्तित्व दोनों हैं, और इन युगल धर्मों को एक साथ नहीं कहा जा सकता अतः वह (घट) अवक्तव्य भी है।
अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्य - ये तीन मूल अंग हैं। शेष चार अंग इन्हीं अंगों के योग-अयोग से निष्पन्न होते हैं। अत: उनका विवेचन मेरी दृष्टि में कथंचित् अनावश्यक है। सप्तभंगों से घटादि वस्तु के समग्र भावाभावात्मक,