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अनेकान्त-55/4
स्याद्वाद का एक शास्त्रीय उदाहरण है-घट, जिसका स्वरूप-नियमन जैन दार्शनिक सप्तभंगी के माध्यम से इस प्रकार है
स्याद् अस्ति एव घटः - कथंचिद् घट है ही। स्याद् नास्ति एव घटः - कथंचिद् घट नहीं ही है। स्याद् अस्ति एव घटः स्यान्नास्ति एव घट: - कथंचित् घट है ही और कथंचिद् घट नहीं ही है। स्यादवक्तव्य एव घट: - कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है स्याद् अस्ति एव घटः स्याद् अवक्तव्य एव घट: - कथंचिद् घट है ही और कथंचित घट अवक्तव्य ही है। स्यान्नास्ति एव घटः स्यादवक्तव्य एव घट: - कथंचिद् घट नहीं ही है और कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है। स्याद् अस्ति एव घटः स्यान्नास्ति एव घट स्यादवक्तव्य एव घट: - कथंचिद् घट है कथंचिद् घट नहीं ही है और कथंचिद् घट अवक्तव्य ही
'स्याद् अस्ति एव घट:' कथंचिद् घट है ही। इस वाक्य में 'घट' विशेष्य और 'अस्ति' विशेषण है, 'एवकार' विशेषण से युक्त होकर घट के अस्तित्व धर्म का अवधारण करता है। यदि इस वाक्य में 'स्यात्' का प्रयोग नहीं होता तो 'अस्तित्व-एकान्तवाद' का प्रसंग आ जाता, जो इष्ट नहीं है। क्योंकि घट में केवल अस्तित्व धर्म नहीं है, उसके अतिरिक्त अन्य धर्म भी उसमें है। 'स्यात्' शब्द का प्रयोग इस आपत्ति को निरस्त कर देता है। 'एवकार' के द्वारा सीमित अर्थ को वह व्यापक बना देता है। विवक्षित धर्म का असंदिग्ध प्रतिपादन और अविवक्षित अनेक धर्म का असंदिग्ध प्रतिपादन और अविवक्षित अनेक धर्मों का संग्रहण-इन दोनों की निष्पत्ति के लिये 'स्यात्कार' और 'एवकार' का समन्वित प्रयोग किया जाता है।
सप्तभंगी के प्रथम अंग में विधि की और दूसरे में निषेध की कल्पना है। प्रथमअंग में विधि प्रधान है और दूसरे में निषेध। वस्तु स्वरूप शून्य नहीं है