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अनेकान्त-55/4
सामान्य-विशेषात्मक नित्यानित्यात्मक और वाच्यावाच्यात्मक धर्मों का युगपत् कथन संभव है।
विवेचित उदाहरणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि स्याद्वाद का महत्व जितना दर्शन की गंभीर पहेलियों को सुलझाने में है, उतना ही जीवन की जटिल समस्याओं का निराकरण करने में भी है। यह अनुभवगम्य तथा सापेक्षसिद्ध होने के कारण व्यावहारिक जगत् की भाषा है, तथापि साम्प्रदायिक आग्रह के कारण कतिपय दार्शनिकों ने इसकी कटु आलोचना की है। शान्तरक्षित ने सप्तभंगीनय को उन्मत्त व्यक्ति का प्रलाप कहा है क्योंकि यह सत्व-असत्व, अस्तित्व-नास्तित्व, एक-अनेक, भेद-अभेद तथा सामान्य-विशेष जैसे विरोधी धर्मों को एकत्र समेटने का उपक्रम करता है।" शंकराचार्य ने स्याद्वाद को संशयवाद का पर्याय मान लिया है तथा इसके खण्डन में यह कहा है कि एक वस्तु में शीत व उष्ण के समान विरोधी धर्म युगपत् नहीं रह सकते। वस्तु को विरोधी धर्मों से युक्त मानकर स्वर्ग और मोक्ष में भी विकल्पतः भाव-अभाव और नित्यता-अनित्यता की प्रसक्ति होगी। स्वर्गादि के वास्तविक स्वरूप की अवधारणा के अभाव में किसी की इनमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार विश्वसनीयता एवं अविश्वसनीयता के विकल्पों से व्याहत आर्हतमत भी अग्राह्य होगा। रामानुजाचार्य के अनुसार भी स्याद्वाद अयौक्तिक है क्योंकि छाया तथा आतप के समान विरुद्ध अस्तित्व तथा नास्तित्वादि धर्मो का युगपद् होना असंभव है। तात्विक दृष्टि से विचार करने पर ये आलोचनायें असंगत सिद्ध होती हैं।20 स्याद्वाद वस्तु को एक ही अपेक्षा से शीत-उष्ण नहीं कहता। जल शीतल है, इसका अर्थ यह है कि वह गरम दूध या चाय की अपेक्षा शीतल है। जल उष्ण है, इसका अर्थ है कि वह बरफ की अपेक्षा गरम है। यह नहीं कि जल में शीतलता और उष्णता एक साथ विद्यमान हैं। वस्तुत: जल अन्य वस्तु की अपेक्षा से शीतल और उष्ण है। इस अपेक्षा भेद को न समझने के कारण ही शांतरक्षित आदि ने स्याद्वाद का विरोध किया है। मल्लिषेण ने इन आलोचनाओं का उत्तर देते हुए कहा है कि वस्तु के सत्व का अभिधान उस (वस्तु) के रूप-द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा से होता है, और उसके असत्त्व का अभिधान अन्य (वस्तु) के