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अनेकान्त-55/4
संयमघात की संभावना रहती हो, वहाँ मुनि को नही ठहरना चाहिए। इन स्थानों का परित्याग कर देना चाहिए। (मूलाचार 10/58-60) प्रव्रज्या की योग्यता/अयोग्यता
प्रव्रज्या किसके होती है? इस सम्बन्ध में सामान्य कथन करते हुए बोधपाहुड (गाथा 54) में कहा गया है कि जिनमार्ग में प्रव्रज्या वज्रवृषभनाराच आदि छहों संहननों में कही गई है। भक्तजन इस प्रव्रज्या को कर्मक्षय का कारण मानकर धारण करते हैं। महापुराण 39/158 में दीक्षायोग्य पुरुष का कथन करते हुए कहा गया है
"विशुद्धकुलगोत्रस्य सवृत्तस्य वपुष्मतः।
दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं सुमुखस्य सुमेधसः॥' अर्थात् जिसका कुल विशुद्ध है, चरित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और आकृति अच्छी है, ऐसा पुरुष दीक्षा ग्रहण करने योग्य माना गया है। जयसेनाचार्य ने प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा है ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य इन तीन वर्गों में से किसी एक वर्ण का नीरोग, तप में समर्थ, अति बालत्व एवं वृद्धत्व से रहित, योग्य आयु का, सुन्दर, दुराचारादि से रहित पुरुष ही जिनलिंग को ग्रहण करने के योग्य होता है। लब्धिसार की टीका में कहा गया है कि जो पुरुष दिग्विजय के काल में चक्रवर्ती के साथ आर्यखण्ड में आते हैं और चक्रवर्ती आदि के साथ उनका वैवाहिक सम्बन्ध पाया जाता है, उनके संयम ग्रहण के प्रति विरोध का अभाव है। अथवा जो म्लेच्छ कन्यायें चक्रवर्ती आदि के साथ विवाही गई हैं, उन कन्याओं के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होते हैं, उनके दीक्षा ग्रहण संभव है। (ल. स./जी. प्र./185/249/19) स्पष्ट होता है कि शूद्र भी कथंचित् दीक्षा योग्य हैं। किन्तु यहाँ यह विशेष है कि सत् शूद्र ही यथायोग्य (क्षुल्लक) दीक्षा के योग्य होते हैं। प्रायश्चित्त चूलिका 154 में स्पष्टतया कहा गया है कि- 'भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा क्षुल्लक-व्रतम्।'
"वण्णेस तीस एक्को कल्याणंगो तवोसहो वयसा। सुमुहो कुंछारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जग्गो॥"