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अनेकान्त-55/4
ऐसा मानता है कि मैं बन्धुवर्ग को मनाकर पश्चात् तपस्या करूँ तो उसके प्रचुर रूप से तपस्या नही हो पाती है। और यदि जैसे तैसे तपस्या हो भी जाती है, परन्तु वह कुल का मद करता है तो वह तपोधनी नही बन पाता है। इसी की टीका में पं. हेमराज ने भी ऐसे ही भाव प्रकट किये हैं कि यहाँ पर ऐसा मत समझना कि विरक्त होवे तो कुटुम्ब को राजी करके ही होवे। कुटुम्ब यदि किसी तरह राजी ने होवे तब कुटुम्ब के भरोसे रहने से विरक्त कभी होय नही सकता। इस कारण कुटुम्ब से पूछने का नियम नही है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सामान्यतः कुटुम्ब से विदा लेकर ही दीक्षा ग्रहण करना चाहिए। परन्तु यदि कुटुम्ब में कोई मिथ्यादृष्टि दीक्षा ग्रहण करने से रोके और माने नही तो ऐसी स्थिति में आत्मकल्याण के लिए दीक्षा ग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में कुटुम्ब से आज्ञा लेने का कोई नियम नही है। दीक्षार्थी द्वारा सर्वप्रथम सिद्धों की अर्चना का विधान इसलिए किया गया है, कि अर्हन्त भी दीक्षा के समय सिद्धों को नमस्कार करते हैं। क्योंकि अर्हन्त भगवान् में सिद्धों की अपेक्षा कम गुण हैं। दीक्षान्वय की क्रियायें
व्रत को धारण करने के सम्मुख व्यक्ति विशेष की प्रवृत्ति से सम्बन्ध रखने वाली क्रियाओं को दीक्षान्वय की क्रियायें कहा जाता है। इन क्रियाओं की संख्या महापुराण के अनुसार अवतार से लेकर परनिर्वृत्ति क्रिया तक 48 है। मिथ्यात्व से दूषित कोई भव्य समीचीन मार्ग को ग्रहण करने के सम्मुख हो किन्ही मुनिराज अथवा गृहस्थाचार्य के पास जाकर यथार्थ देव-शास्त्र-गुरु व धर्म के सम्बन्ध में योग्य उपदेश प्राप्त करके मिथ्या मार्ग से प्रेम हटाता है
और समीचीन मार्ग में बुद्धि लगाता है। गुरु ही उस समय पिता है और तत्त्वज्ञान रूप संस्कार ही गर्भ है। यहीं यह भव्य प्राणी अवतार धारण करता है। इसी प्रकार आगे की क्रियाओं का विवेचन हुआ है। सभी क्रियाओं के लिए पृथक्-पृथक् मन्त्रों का विधान है। अन्त में परनिर्वृत्ति क्रिया विमुक्त सिद्ध पद की प्राप्ति रूप है।