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अनेकान्त-55/4
वह एकल विहारी हो सकता है। (आचारसार 27)। मूलाचार वृत्ति (4/149) में कहा गया है कि जो तपों की आराधना करते हैं, 14 पूर्वो के ज्ञाता हैं, काल क्षेत्र के अनुकूल आगम के जानकर हैं तथा प्रायश्चित्तशास्त्र (सूत्र) के ज्ञाता हैं। किसी उत्तम संहनन के धारक हैं, क्षुधादि बाधाओं को सहन करने में समर्थ हैं, ऐसे श्रमण एकल विहार कर सकते हैं। अन्य साधारण मुनियों को विशेष रूप से हीन संहनन वाले इस पंचम काल में एकाकी विहार का विधान नही
वर्षाकाल एवं विशेष परिस्थितियों के अतिरिक्त श्रमण को सदा विहार करते रहने का विधान है तथा एकाकी विहार की घोर निन्दा शास्त्रों में की गई है। एकाकी विहार में अनेक दोषों की संभावना होने से ही उसका निषेध किया गया है। शीघ्र आचार्य बनना चाहने वाले को पापश्रमण संज्ञा
मूलाचार (10/69) में कहा गया है कि जो पहले शिष्यत्व न करके आचार्यत्त्व धारण करने की जल्दी करता है, ऐसा पूर्वापर विवेकशून्य ढोंढाचार्य मदोन्मत्त हाथी के समान निरंकुश भ्रमण करता है। अपने को आचार्य कहने-कहलवाने वाले आगम ज्ञान से रहित ये पापश्रमण अपना तो विनाश करते ही हैं साथ ही कुत्सित उपदेशादि के द्वारा दूसरों का भी विनाश करते
यहाँ पर मुख्य रूप से बोधपाहुड के आधार पर एवं जो विषय बोधपाहुड में नही है या स्वल्प हैं, उन पर मूलाचार, भगवती आराधना, ज्ञानार्णव एवं महापुराण आदि के आधार पर प्रव्रज्या विषयक वर्णन संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया गया है। मुझे विश्वास है पूज्य मुनिराज एवं विद्वान् व्यापक रूप से चर्चा के पश्चात् किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, जिससे शिथिलाचारी साधुओं के द्वारा मलिन होते जा रहे जिनशासन को बचाया जा सकेगा।
-सम्पादक