Book Title: Anekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 221
________________ 14 अनेकान्त-: T-55/4 अनियतविहार श्रमण की विहारचर्या में अनियतविहार को आवश्यक माना गया है। मूलाचारवृत्ति (8/3) में कहा गया है कि रत्नत्रय की विशुद्धि के लिए समान रूप से सभी स्थानों पर भ्रमण करते रहना विहारचर्या है। 9/31 मूलाचार में कहा गया है कि अपरिग्रही मुनि को बिना किसी अपेक्षा के हवा की भांति लघुभूत होकर मुक्तभाव से ग्राम, नगर, वन आदि से युक्त पृथ्वी पर समान रूप से विचरण करते रहना चाहिए। भगवती आराधना (148 ) में अनियतविहार के गुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि अनेक देशों में विहार करने से क्षुधाभावना, चर्या भावना आदि का पालन होता है। अन्यान्य देशों में मुनियों के भिन्न-भिन्न आचारों का ज्ञान होता है तथा विविधभाषाओं में जीवादि पदार्थों के प्रतिपादन का चातुर्य प्राप्त होता है। अनियतविहारी मुनि चारित्र के धारक होते हैं। उन्हें देखकर अन्य मुनि भी चारित्र एवं योग के धारक तथा सम्यक् लेश्या वाले बनते हैं। इस प्रकार अनियतविहार के अनेक लाभों के चर्चा श्रमणाचार विषयक ग्रन्थों में की गई है। एकाकीविहार निषेघ मूलाचार (4/150 ) में एकाकीविहार का निषेध करते हुए कहा गया है कि "गमन, आगमन, शयन, आसन, वस्तुग्रहण, आहारग्रहण, भाषण, मलमूत्रादि विसर्जन इन कार्यो में स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने वाला कोई भी श्रमण मेरा शत्रु भी हो तो भी एकाकी विहार न करे। " अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए जो मुनि स्वच्छन्द होकर एकाकी विहार में प्रवृत्त होता है, वह दोष प्रकट होने के भय से संघ में अन्य - श्रमणों के साथ रहने से डरता है। भगवती आराधना में ऐसे श्रमणों को यथाछन्द नामक पापश्रमण कहा है। (द्रष्टव्य भ. आराधना, गाथा 1310-1312) एकलविहार की अनुमति भी, पर इस पंचम काल में नही जो मुनि बहुकाल से दीक्षित है, ज्ञान संहनन और भावना से बलवान् है,

Loading...

Page Navigation
1 ... 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274