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अनेकान्त-55/4
इसकी टीका में भी कहा है- 'भोज्येष्वेव प्रदातव्या क्षुल्लक दीक्षा नापरेषु।' अर्थात् शूद्रों में केवल भोज्य या स्पृश्य शूद्रों को ही क्षुल्लक दीक्षा दी जानी चाहिए, अन्यों को नही।
बोधपाहुड (49) की श्रुतसागरी टीका में दीक्षा के अयोग्य व्यक्ति का कथन करते हुए कहा गया है कि 'कुरूपिणो हीनाधिकस्याङ्गस्य कुष्ठादिरोगिणश्च प्रव्रज्या न भवति' अर्थात् कुरूप, हीन या अधिक अंग वाले तथा कुष्ठादि रोगों वाले व्यक्ति की दीक्षा नही होती है। दो हाँथ, दो पैर, नितम्ब, पीठ, वक्षस्थल और मस्तक ये आठ अंग माने गये हैं। मूर्धा, कपाल, ललाट, शंख, भौंह, कान, नाक, आंख, अक्षिकूट, हनू, कपोल, ओष्ठ, अधर, चाप, तालु, जीभ आदि उपांग है। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि पुरुष लिंग में दोष न हो तो वह औत्सर्गिक लिंग (दिगम्बर दीक्षा) धारण कर सकता है। गृहस्थ के पुरुष लिंग में चर्म न होना, अधिक दीर्घता एवं बारम्बार चेतन होकर ऊपर उठना दोष हों तो वह दीक्षा धारण करने योग्य नही है। उसी तरह यदि अण्ड अतिशय लम्बे हों तो भी गृहस्थ दिगम्बरत्व के अयोग्य है। दीक्षायोग्य काल
समवसरण में भरतचक्रवर्ती के स्वप्नों का फल बताते हुए भगवान् ऋषभदेव ने कहा है कि ऊँचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बैल का विहार देखने से सूचित होता है कि लोग तरुण अवस्था में ही मुनिपद में ठहर सकेंगे अन्य अवस्था में नही।
तरुणस्य वृषस्योच्चैः नदो विहृतीक्षणात्।
तारुण्य एव श्रामण्ये स्थार पन्ति न दशान्तरे। -महापुराण 41/75 यहाँ यह स्पष्ट है कि तारुण्य का अभ्रिपाय 25 से 50 वर्ष की अवस्था से है, न कि वर्तमान में 16-17 वर्ष में दीक्षित हो रहे किशोर साधुओं से।
कुछ लोग कहते हैं कि पंचम काल में दिगम्बर दीक्षा धारण नही करना चाहिए। यह कथन भी आगम की आज्ञा के सर्वथा प्रतिकूल है। पंचमकाल में