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जे दिन तुम विवेक बिन खोये
-कविवर भागचन्द मोह वारुणी पी अनादितै, परपद में चिर सोये। सुखकरंड चितपिंड आपपद, गुन अनंत नहिं जोये॥ जे दिन तुम विवेक बिन खोये ......
होय बहिर्मुख ठानि राग रुख, कर्म बीज बहु बोये। तसु फल सुख दुख सामग्री लखि, चित में हरषे रोये॥ जे दिन तुम विवेक बिन खोये ....................2
धवल ध्यान शुचि सलिलपूर , आसवमल नहिं धोये। परद्रव्यनि की चाह न रोकी, विविध परिग्रह ढोये ॥ जे दिन तुम विवेक बिन खोये ....................3
अब निज में निज जान नियत तहां, निज परिनाम समोये। यह शिवमारग समरससागर, 'भागचन्द' हित तोये ॥ जे दिन तुम विवेक बिन खोये