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अनेकान्त-: -55/4
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निर्ग्रन्थ साधु को ही प्रव्रज्या कहा गया है। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि उक्त ग्यारह स्थानों के माध्यम से वास्तव में निर्ग्रन्थ साधु के स्वरूप को ही स्पष्ट किया गया है।
श्रुतसागरी टीका
आचार्य कुन्दकुन्द कृत अष्टपाहुडों में से लिंगपाहुड एवं सीलपाहुड को छोड़कर शेष छह पाहुडो पर ( 16वीं शताब्दी में लिखित) भट्टारक श्रुतसागर सूरि की संस्कृत टीका उपलब्ध है। यह टीका श्री जयसेनाचार्य की टीका की भांति पदखण्डान्वयी है। टीकाकार ने 'नामूलं लिख्यते किञ्चित्' की पद्धति को न अपना कर कहीं-कहीं भावों को तोड़ा मरोड़ा है तो कहीं-कहीं परमतखण्डन में असहिष्णुता दिखाई है। बोधपाहुड की 17वीं गाथा की टीका में बिना प्रसंग के ही उन्होंने भक्तों से अपनी पूजा कराने के लिए जोरदार उपदेश दिया है। वे लिखते हैं- 'तुम सब पूजा करो, अष्टविध अर्चन करो तथा विनय करो। हाथ जोड़ना, पैरों में पड़ना, सन्मुख जाकर लिखा लाना वात्सल्य, भोजनपान, पदमर्दन, शुद्ध तैलादि से मालिश, प्रक्षालन आदि सब काम तीर्थकर नामकर्म के उपार्जन के हेतुभूत हैं। ( जैन सा.का. इति. पृ. 375-376)
गाथा 27,32, 33 एवं 43 की टीकाओं में अनावश्यक विस्तार किया है जो प्रवाह को अवरुद्ध करता है। यह टीका कुन्दकुन्द की भावना के अनुकूल नही जान पड़ती है।
प्रव्रज्या शब्द का अर्थ
आयतन आदि ग्यारह स्थानों में प्रव्रज्या का निर्ग्रन्थ साधु के साथ सीधा सम्बन्ध होने के कारण विशेष महत्त्व है। प्रव्रज्या शब्द प्र उपसर्ग पूर्वक व्रज् धातु से क्यप् तथा स्त्रीत्व विवक्षा में टाप्-प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है जिसके अनेक अर्थो मे दीक्षा, अनगारी का जीवन, साधु के रूप में इतस्ततः भ्रमण अर्थ प्रमुख हैं। प्रकृत में प्रव्रज्या का अर्थ प्रधान रूप से ऐसी दीक्षा को ग्रहण किया गया है जिसमें सर्वविध परिग्रह न हो ( पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता, बो. 25 ) 1
प्रव्रज्या का स्वरूप
" वैराग्य की उत्तम भूमिका को प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति अपने सब सगे