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अनेकान्त - 55/4
कविवर वृन्दावनदास ने कहा है- 'हुए हैं न होंहिंगे मुनिंद कुंदकुंद से। ' बोधपाहुड एवं उसका प्रतिपाद्य
श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत अष्टपाहुड में बोधपाहुड अल्पकाय किन्तु महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह बासठ गाथाओं में निबद्ध है, जिसमें निम्नलिखित 11 विषयों का संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित विवेचन हुआ है- आयतन, चैत्यग्रह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, अरिहन्त और प्रव्रज्या । सभी ग्यारह स्थानों के विषय में कहा गया है कि निश्चय से निर्ग्रन्थ साधु ही आयतन है, वही चैत्यग्रह है, वही जिन प्रतिमा है, वही दर्शन है, वही जिनबिम्ब है, वही जिनमुद्रा है, वही ज्ञान है, वही देव है, वही तीर्थ है और वही अरिहन्त है। यहाँ पर ज्ञातव्य है कि साधुओं में अरिहन्त को भी समाविष्ट किया गया है। आयतन का अर्थ है धर्मस्थान। वास्तविक आयतन तो धर्मधारी मुनिराज ही है, व्यवहार से उनके आवास को आयतन कहा जाता है। चैत्यग्रह का अर्थ है - जिनालय । षट्काय के जीवों की रक्षा करने वाले मुनिराज ही वास्तव में चैत्यग्रह हैं, व्यवहार से जिनालय को भी चैत्यग्रह कहा गया है। प्रतिमा का अर्थ है मूर्ति । वास्तव में निर्ग्रन्थ मुनि की जंगम देह ही प्रतिमा है और सिद्ध अचल प्रतिमा है। वही वन्दनीय है। व्यवहार से धातु या पाषाण प्रतिमा भी वन्दनीय है। दर्शन का अर्थ है जिनदर्शन । मुनिराज का स्वरूप जिनेन्द्र भगवान् का रूप है अतः वे साक्षात् दर्शन हैं। निर्ग्रन्थ मुनिराज ही वस्तुत: जिनदेव के प्रतिबिम्ब है। संयम में दृढ़ मुनिराज ही जिनमुद्रा है। मोक्षमार्ग की हेतु रूप शुद्धात्मा ज्ञान से प्राप्त होती है। उसके धारक निर्ग्रन्थ मुनि हैं अतः निर्ग्रन्थ साधु ही ज्ञान हैं। देव वीतरागी होते हैं। निर्ग्रन्थ मुनि वीतरागी हैं या उस मार्ग के पथिक हैं अतः वे ही देव हैं। जिससे तिरे उसे तीर्थ कहते है। निर्मल आत्मा वास्तव में तीर्थ है। निर्ग्रन्थ मुनिराजों की आत्मा सम्यक्त्व एवं महाव्रतों से शुद्ध, इन्द्रियों से विरक्त तथा भोगों की इच्छा से रहित निर्मल होती है अतः निर्ग्रन्थ साधु ही तीर्थ है। सभी केवलज्ञानी अरिहन्त होते है। निर्ग्रन्थ साधु ही इस पद को प्राप्त कर सकते हैं, अत: कारण में कार्य का उपचार मानकर कहा जा सकता है कि निर्ग्रन्थ साधु ही अरिहन्त हैं। प्रव्रज्या दीक्षा को कहते हैं और प्रव्रज्या धारी निर्ग्रन्थ साधु होता है,
अतः