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बोधपाहुड में वर्णित प्रव्रज्या : एक समीक्षा
- डॉ. जयकुमार जैन
कुन्दकुन्दाचार्य एवं अष्टपाहुड
'मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥'
किसी भी मंगल कार्य के पूर्व जैनों में उक्त श्लोक पढ़ने की परम्परा है। स्पष्ट है कि चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर और उनकी दिव्यध्वनि के धारक तथा द्वादशांग आगम के प्रणेता गौतम गणधर के पश्चात् श्री कुन्दकुन्दाचार्य को प्रधानता दी गई है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव श्रमण संस्कृति के उन्नायक एवं अध्यात्म विषयक साहित्य के युगप्रधान आचार्य तो हैं ही, वे एक कुशल अनुशासक भी हैं। मूलसंघ के पट्टाचार्य कुन्दकुन्दाचार्य की अष्टपाहुड ऐसी महनीय कृति है जिसमें उनका कठोर प्रशासक का रूप दृष्टिगोचर होता है। इसमें दर्शन, चरित्र, सूत्र, बोध, भाव, मोक्ष, लिङ्ग, और शील इन आठ पाहुडों का समावेश है। इन पाहुडों में कुन्दकुन्दाचार्य ने आज से 2000 वर्ष पूर्व शिथिलाचार के विरुद्ध जो सशक्त आवाज बुलन्द की थी, वह प्रत्येक काल में पूर्णतया सर्वथा प्रासंगिक रही है। अवसर्पिणी काल में शिथिलाचार का उत्तरोत्तर बढ़ना जब निरन्तर जारी हो, तब इन पाहुडों की उपयोगिता और अधिक बढ़ गई है।
वर्तमान में अष्टपाहुड की उपादेयता
आज दिगम्बर परम्परा के श्रमणों में जब अनियत विहार की प्रवृत्ति का अभाव सा हो रहा हो एवं कतिपय साधु-साध्वियों में मठाधीशपना बढ़ रहा हो, आचार्य के अनुशासन का उच्छृंखलतापूर्वक निरादर किया जा रहा हो तथा साधु एकल विहारी बनते जा रहे हों, शिष्यों की लोलुपता में सीमातीत वृद्धि हो रही हो तथा भ्रष्ट, एवं अयोग्य व्यक्तियों को संघ में दीक्षा दी जा रही हो, साधु-साध्वियाँ अपने उपदेशों में अन्य साधु-साध्वियों पर कटाक्ष कर रहे हों,