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अनेकान्त/55/3
यौन व्यवहार, क्रूरता, करुणा का अभाव, और रिश्तों की बदलती मर्यादायें जैसी सामाजिक बुराईयां बचपन से ही पनपने लगीं हैं बड़े होने तक ये बुरी आदतों में परिणत हो जाती है। अतः उचित शिक्षा, संस्कार एवं गुरु-वाणी से उन्हें विवेकवान बनाना आवश्यक है। तभी अच्छे-बुरे की पहचान होगी ये सब किसी ट्युशन या कोचिंग क्लास में नहीं मिलेगा यह सब हमें धार्मिक/नैतिक संस्कारों की शिक्षा के द्वारा मिलेगा। सच ही कहा है कि धर्म जीवन का आधार है। धार्मिक/नैतिक संस्कारों से मानवीय गुणों, संवदेनाओं एवं विचारों को बल मिलता है।
इस संसार में अच्छाई भी है बुराई भी है, नेकी भी है और वदी भी है, पाप भी है पुण्य भी है, व्यसन भी है सदाचार भी है यह हमारे विवेक पर निर्भर है कि हम क्या चुनें।
गुरुवर कहते है कि संसार की बगिया में से फूल-चुनो, शूलों को भूल जाओ जो फूल चुनता है उसका जीवन फूल सा सौरभ बिखेरता है
वैसे तो आचार्यों ने व्यसनों खोटी आदतों को सात भागों में बांटा है, पर ये सात व्यसन 7000 व्यसन से कम नहीं। जितने भी अनैतिक-पापयुक्त कार्य है सभी व्यसनों में आते है जो मानव को पतन की ओर ले जाते हैं। आचार्यों ने सात व्यसन बताये है।
ये सात व्यसन है- द्यूत-मांस-सुरा-वेश्या खेट चौर्य पराड़ना, महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद् बुधः॥ जुआ, मांस, शराब, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, परस्त्रीसेवन ये सात व्यसन हैं जिनका त्याग होना चाहिये। जुआ :- व्यसनों में जुआ को पाप का बीज बताया है। अर्थात् यदि अपने जीवन को पापमय बनाना है तो जुआ रूपी व्यसन के बीज की अपने जीवन में बोनी कर दो (बो-लो)। इतिहास गवाह है कि जुआ खेलने के कारण किस तरह वंश के वंश नष्ट हो गये और महाभारत जैसा युद्ध हुआ। युधिष्ठर जैसा धर्मज्ञ, अर्जुन जैसा धर्नुधारी, भीम जैसा योद्धा, नकुल व सहदेव जैसे वात्सल्य प्रेमी को दुनिया की कोई ताकत पराजित नहीं कर सकती थी, उन्हें जुआ ने पराजित कर दिया।