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अनेकान्त/55/3
निश्चयवादी यह कहते हैं कि उच्चतर आध्यात्मिक स्थिति में पुण्य भी हेय है (क्योंकि पुण्य भी तो कर्म है)। इस आधार पर पुण्य की इकाइयों का मान पाप की इकाइयों के समकक्ष पर ऋणात्मक होगा।
यद्यपि शास्त्रों में 'सावद्यलेशो, बहुपुण्यराशिः' कहा गया है, पर वहां न तो 'लेश' शब्द की परिमाणात्मकता बताई गई है और न ही 'बहु' शब्द का लेश-मात्रा से सम्बन्ध बताया गया है। पर इस सम्बन्ध को परोक्षतः भी अनुमानित किया जा सके, तो हमारे विवरण में किंचित् वैज्ञानिकता आ सकती है। तथापि, पुण्य की मात्रा का परिकलन हिंसा की मात्रा के परिकलन के समान सरल नहीं है क्योंकि पुण्यार्जन में मानसिक विचार एवं संकल्प एक अनिवार्य अंग है। यहां हम कर्म-सिद्धांत का उपयोग कर कुछ परिमाणात्मकता ला सकते हैं।
इसके अनुसार, पुण्य-प्रकृतियां 42 हैं और पाप प्रकृतियां 82 हैं। सामान्य गणित में यह कहा जा सकता है कि एक पुण्य प्रकृति दो पाप प्रकृतियों को उदासीन करने में समक्ष है।
कर्म सिद्धांत की एक अन्य धारणा के अनुसार, पुण्य हल्का होता है और पाप या हिंसा भारी होती है। साथ ही, कर्म, पाप और पुण्य सभी सूक्ष्म कणिकामय हैं अर्थात् भौतिक हैं। इन्हें आधुनिक भौतिक कणों के लघुतम और अल्पतम दीर्घ रूपों में व्यक्त करना तो कठिन ही है, फिर भी जैनों के अनुसार, चरम परमाणु का विस्तार और घनत्व अल्पतम होता है। इसे हम एक (जैसे हाइड्रोजन) मान लें, तो भारी कण का भार या विस्तार ऐसा होना चाहिये जिसमें नीचे की ओर पतित होने की न्यूनतम क्षमता हो। यदि वाल्टर मूर के अनुसार, चरम परमाणु का विस्तार, 10 -13 सेमी. और द्रव्यमान 10-24 ग्रा. भी मानें, तब भी उसके घनत्व के मान को इकाई ही लेना होगा। इसका कारण यह है कि शास्त्रानुसार हिंसक नीचे नरक में जाता है और अहिंसक ऊपर स्वर्ग या मोक्ष तक जाता है। इस दृष्टि से हम लघुतम ठोस परमाणु लीथियम के समकक्ष मान लें जिसका भार हाइड्रोजन की तुलना में सात (या सातगुना भारी) होता है। इस आधार पर पुण्य और पाप का अनुपात