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अनेकान्त/55/3
कोशिकाओं की संख्या भी बढ़ती जाती है। कोशिकाओं का आकार, विस्तार एवं संख्या का मापन अनुमित किया जा सकता है। इस दृष्टि से मनुष्यों के जीव में सौ खरब (103) कोशिकायें पाई जाती हैं और बैक्टीरिया एक कोशिकीय होता है। फलतः एक बैक्टीरिया की तुलना में सामान्य पंचेन्द्रिय मनुष्य के हिंसन में 103 गुनी हिंसा संभावित है। इस आधार पर उनका चैतन्य भी इनकी तुलना में एक खरब गुना होना चाहिये । इतने अधिक हिंसक की संभावना के कारण ही पंचेन्द्रियों के हिंसन को उच्चतर नैतिक और धार्मिक अपराध माना गया है। पर यहां यह प्रश्न भी उठता है कि एक इन्द्रिय कोशिका के समूह की पंचेन्द्रियता कैसे स्थापित की जाय जिससे उसकी चैतन्य कोटि निर्धारित की जा सके। इस विषय में विचारणा चल रही है।
पुण्य के परिकलन में चैतन्य की कोटि तो पंचेन्द्रियों (पशु, मनुष्य, देव, नारक) के अनुरूप ही होगी क्योंकि विकलेन्द्रियों में शास्त्रानुसार मन नहीं पाया जाता। फलतः उनके प्रकरण में यह परिकलन यथार्थता से नहीं हो पायेगा। अतएव हमें और भी सूक्ष्मतम विश्लेषण एवं विचारणा की आवश्यकता पड़ेगी। फलतः हमारा पुण्य परिकलन पंचेन्द्रियों तक ही सीमित होगा। इस समय चैतन्य कोटि का निर्धारण चल रहा है।
- जैन सेंटर, रीवा, म.प्र.
ग्राहयोऽस्ति धर्मः सहितो दयाभिर्देवोऽपि चाष्टादशदोषमुक्तः । रौस्त्रभिः सौख्यमयैश्च युक्तो वन्द्यो गुरुः स्वात्मरसेन तृप्तः ॥ - बोधामृतसार, 5 अर्थ- जो धर्म दया से सहित है, वही ग्रहण करने योग्य है, जो देव अठारह दोषों से रहित वही देव ग्रहण (पूजन) करने योग्य है। जो गुरु- सुखमय रत्नयय से युक्त है तथा आत्मारस से संतुष्ट है, वही गुरु वन्दना के योग्य है।