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अनेकान्त/55/3
से लाभ से ही संतुष्ट रहता है, क्रोध, मान, लोभ तथा कपट से पर द्रव्य का हरण नहीं करता है। 30 अचौर्याणुव्रत के अतिचार :- चोरी करने के उपाय बताना, चोरी का माल खरीदना, राजा के नियमों के विरुद्ध कार्य करना, माप-तौल कमती-बढ़ती रखना तथा मिलावट करना ये पाँच अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं। पण्डितप्रवर आशाधर ने विरुद्धराज्यातिक्रम के स्थान पर 'युद्ध के समय पदार्थों का संग्रह करना' अतिचार में परिगणित किया है। अचौर्याणुव्रत की भावनायें :- निर्जन स्थान पर रहना, दूसरों द्वारा परित्यक्त स्थान पर रहना, जहाँ ठहरे हों वहाँ दूसरों को आने से न रोकना, शास्त्रानुसार भिक्षा में शुद्धि रखना तथा साधर्मियों से विसंवाद न करना ये पाँच अचौर्याणुव्रत की भावनायें हैं। 32 ये भावनायें आचार्य उमास्वामी ने मुख्यतः महाव्रतियों को कहीं जान पड़ती हैं। परन्तु सधर्माविसंवाद भावना श्रावकों में भी घटित हो सकती है। पूजन के बर्तन, धोती-दुपट्टा, बैठने के स्थान आदि के विषय में झगड़ने का भाव न रखना सधर्माविसंवाद भावना है। आचार्य पूज्यपाद का कहना है कि पर द्रव्य का अपहरण करने वाले चोर का सभी तिरस्कार करते हैं। इस लोक में वह ताडन, मारण, बन्धन, छेदन, भेदन और सर्वस्व हरण आदि दुःखों को भोगता है तथा परलोक में अशुभ गति को प्राप्त करता है। अतः चोरी का त्याग करना ही कल्याणकारी है। श्रावक को ऐसी भावना का चिन्तन करना चाहिए। 33 4. ब्रह्मचर्याणुव्रत :- चारित्रमोहनीय कर्म के उदय में सजातीय या विजातीय मिथुन की स्पर्शनादि क्रियायें अब्रह्म हैं और इनका त्याग ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्याणुव्रत का वर्णन करते हुए रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में कहा गया है कि जो पाप के भय से न तो परस्त्री के प्रति गमन करे और न दूसरों को गमन करावे वह परस्त्री त्याग एवं स्वस्त्री संतोष नामक ब्रह्मचर्याणुव्रत है। आचार्य वसुनन्दि का कहना है कि अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में स्त्री सेवन तथा सदैव अनङ्ग.क्रीडा का त्याग करने वाले को भगवान् ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है। स्वामी कार्तिकेय के अनुसार जो स्त्री के शरीर को अशुचिमय और