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अनेकान्त / 55/3
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इन पाँच अणुव्रतों के अतिरिक्त चारित्रसार में रात्रिभोजन त्याग को छठा अणुव्रत कहा गया है।” पाक्षिक प्रतिक्रमण पाठ में भी कहा गया है कि मैं छठे अणुव्रत में रात्रि भोजन का त्याग करता हूँ। श्री ब्रह्म नेमिदत्त ने भी अपने धर्मोपदेश पीयूष वर्ष श्रावकाचार में रात्रिभोजन त्याग को छठा अणुव्रत स्वीकार किया है। 18 इनकी यह मान्यता चारित्रसार के प्रणेता चामुण्डराय के ही समान है।
1. अहिंसाणुव्रत :- प्रमाद के योग अर्थात् राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति के कारण अपने अथवा दूसरों के प्राणों के व्यपरोपण अर्थात् पीडन और विनाशन को हिंसा कहते हैं। स्थूल हिंसा से विरक्त होना अहिंसाणुव्रत है । वसुनन्दि श्रावकाचार में त्रस जीवों की हिंसा के सर्वथा त्याग तथा निष्प्रयोजन स्थावर जीवों की हिंसा के त्याग को अहिंसाणुव्रत कहा है। " आरंभी, उद्योगी, विरोधी एवं संकल्पी हिंसा में से गृहस्थ संकल्पी हिंसा का तो त्यागी होता है। शेष मं यथासंभव यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करता है । यदि यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति न करे तो अन्य हिंसा भी संकल्पी ही मानी जावेगी। श्री जयसेनरचित धर्मरत्नाकर में तथा पुरुषार्थ सिद्धयुपाय के एक श्लोक कहा गया है कि अहिंसामय धर्म के स्वरूप को सुनते हुए भी जो जीव स्थावर हिंसा को छोड़ने में असमर्थ हों, उन्हें त्रसहिंसा का त्याग तो करना ही चाहिए। 20
अहिंसाणुव्रत के अतिचार :- धारण किये गये व्रत में दोष लगने का नाम अतिचार है। आचार्य उमास्वामी ने प्राणीबंधन, प्राणीताडन, अंगच्छेद, अतिभारारोपण तथा अन्नपान निरोध ये अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार माने हैं। 21 श्रावक को इनसे बचने का सतत प्रयास करना चाहिए, क्योंकि इनसे व्रत में मलिनता आती है।
अहिंसाणुव्रत की भावनायें :- वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति तथा आलोकितपान भोजन यें पाँच अहिंसा व्रत की भावनायें हैं। 22 इनके आने से व्रत का पालन ठीक प्रकार से होता है। श्रावक को निरन्तर यह विचार करना चाहिए कि हिंसादि पापों से इस लोक और परलोक में आपत्तियाँ प्राप्त होती हैं। ये पाप दुःख रूप ही है। अतः इनका त्याग कर देना ही योग्य है । सोमदेव सूरि ने यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन में कहा कि अणुव्रती