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अनेकान्त/55/3
दुर्गन्धित जानकर उसके रूप-लावण्य को भी मन में मोह पैदा करने वाला मानता है तथा मन-वचन-काय से पराई स्त्री को माता, बहिन और पुत्री के समान समझता है, वह श्रावक स्थूल ब्रह्मचर्य का धारी है। अमृतचन्द्राचार्य का कहना है कि जो जीव मोह के कारण अपनी विवाहिता स्त्री को छोड़ने में असमर्थ हैं, उन्हें भी शेष सर्व स्त्री के सेवन को त्याग देना चाहिए। ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार :- दूसरों के पुत्र-पुत्रियों का विवाह कराना, पतिरहित स्त्री (अनाथ, कुमारी या वेश्या) के यहाँ जाना, विवाहिता व्यभिचारिणी स्त्री के यहाँ जाना, काम सेवन के अंगों से भिन्न अंगों से काम सेवन करना तथा काम सेवन की तीव्र लालसा रखना ये पाँच उमास्वामी के अनुसार ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार हैं। 38 ब्रह्मचर्याणुव्रत के इन अतिचारों में इत्वरिकापरिग्रहीता गमन एवं इत्वरिका अपरिग्रहीतागमन रूप दूसरे एवं तीसरे अतिचार में कोई विशेष अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता है। क्योंकि स्वदार सन्तोषी के लिए तो दोनों ही परस्त्री हैं। इसी कारण समन्तभद्राचार्य ने इन दोनों के स्थान पर एक इत्वरिकागमन को रखकर विटत्व नामक एक अन्य अतिचार को रखा है।" यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का अतिचार होने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। ब्रह्मचर्याणुव्रत की भावनायें :- स्त्रियों के अंग देखने से विरक्त रहना, पूर्वानुभूत भोगों के स्मरण से विरक्त रहना, स्त्रियाँ जहाँ रहती हों वहाँ रहने से विरक्त रहना, शृंगारिक कथाओं से विरक्त रहना तथा कामोत्तेजक पदार्थों के सेवन का त्याग करना ये पाँच ब्रह्मचर्याणुव्रत की भावनायें भगवती आराधना में कहीं गई हैं। 40 आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र में संसक्तवास के स्थान पर स्व शरीर संस्कार त्याग नामक भावना है। शेष चार भावनायें समान हैं। ब्रह्मचर्याणुव्रत की इन पाँच भावनाओं में पाँचों इन्द्रियों एवं मन के विषयों की प्रवृत्ति को त्यागने का भाव गर्भित है। इससे यह भी स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य केवल स्पर्शन इन्द्रिय मात्र का विषय नही है, अपितु सभी इन्द्रियों का विषय है। 5. परिग्रहपरिमाणाणुव्रत :- यह वस्तु मेरी है, मैं इसका स्वामी हूँ इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है। श्री शुभचन्द्राचार्य के अनुसार परिग्रह ही दुःख का मूल कारण है। क्योंकि परिग्रह से काम उत्पन्न होता है, काम से