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अनेकान्त/55/3
अन्य नाम :- श्रद्धावान् गृहस्थ को भिन्न भिन्न स्थानों पर श्रावक, उपासक, आगारी, देशव्रती, देशसंयमी आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। यद्यपि यौगिक दृष्टि से इन नामों के अर्थों में अन्तर है, तथापि सागान्यतः ये एकार्थक या पर्यायवाची माने जाते हैं। देशव्रती या देशसंयमी पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ही संज्ञा हो सकती है, चतुर्थ गुणस्थानवर्ती की नहीं। श्रावक के भेद :- श्रावक तीन प्रकार के होते हैं- पाक्षिक, नैष्ठिक एवं साधक। अपने धर्म का पक्ष मात्र करने वाला श्रावक पाक्षिक तथा व्रतधारी श्रावक नैष्ठिक कहलाता है। नैष्ठिक श्रावक वैराग्य की प्रकर्षता से शाक्ति को न छिपाता हुआ उत्तरोत्तर 11 प्रतिमाओं में ऊपर-ऊपर उठता जाता है। अन्तिम प्रतिमा में इसका रूप साधु से कुछ न्यून रहता है। ग्यारहवीं प्रमिाधारी उत्कृष्ट श्रावक के भी दो भेद हैं- एक वस्त्र रखने वाला क्षुल्लक और कौपीन मात्र परिग्रह धारी ऐलका' जो श्रावक आनन्दित होता हुआ जीवन के अन्त में अर्थात् मरण के समय भोजन एवं योगव्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मशुद्धि की साधना करता है, वह साधक श्रावक कहा जाता है। कुछ आचार्यों ने सल्लेखना या समाधिमरण को श्रावक के 12 व्रतों में परिगणित किया है तो कुछ आचार्यों ने उसका पृथक् उल्लेख करके सभी श्रावकों को उनकी आवश्कता प्रतिपादित की है। समाधिमरण करने वाले श्रावक को ही आत्मसाधना के कारण साधक संज्ञा प्राप्त हुई है।
पाक्षिक श्रावक यद्यपि अणव्रती (देशव्रती या देशसंयमी) नही होता है तथापि उसे सर्वथा अव्रती मानना ठीक नही है। क्योंकि जिनवचन पर श्रद्धावान् होने के कारण वह कुल परम्परा से चली आई क्रियाओं का पालन तो करता ही है, व्रत धारण करने का पक्ष भी रखता है। श्रावक के मूलगुण :- श्रावक के धर्माचिरण के आधारभूत मुख्य गुणों को मूलगुण कहा जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य, स्वामी कार्तिकेय तथा आचार्य उमास्वामी ने अपने ग्रन्थों में श्रावक के मूलगुणों की कोई चर्चा नही की है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में व्रतों के अतिचारों एवं भावनाओं का तो पृथक्-पृथक् उल्लेख किया है किन्तु मूलगुणों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का जिक्र