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अनेकान्त /55/3
पड़ता है। इसलिए इन्द्रिय विषयों से कभी भी अहिंसा का रक्षण नहीं हो सकता है। हे क्षपक! तू इन विषय-जन्य सुखों में इच्छा मत कर। जो पंचेन्द्रिय विषयों से सर्वधा विरक्त होता है वही जीव क्षपक अहिंसा व्रत का निर्दोष पालन करने में समर्थ होता है।
जीवो कसायबहुलो संतो जीवाण घायणं कुणइ । सो- जीववहं परिहरदुसया जो णिज्जियकसाओ ॥
भगवती आराधना 817
कषायाविष्ट जीव मनुष्य जीवों का घात करता है किन्तु जो कषायों पर विजय पाता है वही अहिंसा का निर्दोष पालन करता है। अतः अहिंसाव्रत के अभिलाषियों को इन कषाय शत्रुओं का दूर से ही त्याग करना चाहिए । कासु णिरारंभे फासुगभोजिम्मि णाणहिदयम्मि । मणवयणकायगुत्तिम्मि होइ सयला अहिंसा हु॥
भगवती आराधना 819
जो यतिराज आरम्भ का सर्वथा त्याग करते हैं, सतत ज्ञानाभ्यास में तत्पर रहते हैं, स्वाध्याय में स्थिर चित्त रहते हैं, गुप्तियों को धारण करते हैं उन्हीं के यह अहिंसा व्रत पूर्णता को प्राप्त होता हैं
आरंभे जीववहो अप्पासुगसेवणे य अणुमोदो |
आरंभादीसु मणो णाणरदीए विणा चरेइ || भगवती आराधना ।। 820
जमीन खोदना, पानी गिराना, वृक्ष तोड़ना आदि क्रिया में आरम्भ है। इस आरम्भ से पृथिव्यादि कायिक जीवों का घात होता है । उद्गमादि दोषों से दूषित आहार लेने से, जीव बधादि को अनुमति दी है ऐसा सिद्ध होता है। ज्ञानाभ्यास में यदि प्रेम नहीं है तो आत्मा कषाय और आरम्भ में प्रवृत्त होता है । " पण्डितप्रवर आशाधरजी ने लिखा है
कषायोदेकतो योगेः कृतकारितसम्मतान्।
स्यात् संरम्भ-समारम्भारम्भानुज्झन्न हिंसकः ॥ ( धर्मामृत - अनगार 4/27) क्रोध आदि कषायों के उदय से मन, वचन, काय से कृत कारित