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अनेकान्त/55/3
तो वह अहिंसा न होगी। इसलिए निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति की अपेक्षा रहती है, वह बाह्य हो चाहे आन्तरिक, स्थूल हो चाहे सूक्ष्म। सत् प्रवृत्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होना आवश्यक है। इसके बिना कोई प्रवृत्ति सत या अहिंसा नहीं हो सकती, यह निश्चय दृष्टि की बात है। व्यवहार में निषेधात्मक अहिंसा को निष्क्रिय अहिंसा ओर विध्यात्मक अहिंसा को सक्रिय
अहिंसा कहा जाता है। हिंसा क्या है? - तत्त्वार्थ सूत्र में हिंसा को परिभाषित करते हुए लिखा है'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणों के विघात करने को हिंसा कहते है।
हिंसा की व्याख्या दों अंशों के द्वारा पूरी की गई है। पहला अंश है प्रमत्तयोग अर्थात् रागद्वेष युक्त अथवा असावधान प्रवृत्ति और दूसरा है प्राणवध। प्रथम अंश कारण रूप है और दूसरा कार्यरूप। इसका फलितार्थ यह है कि जो प्राणवध प्रमत्तयोग से हो वह हिंसा है।
वस्तुतः हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध पर जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख से न होकर आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष, मोह परिणामों से है। पर जीवों के मरने-मारने का नाम जीव हिंसा नहीं वरन मारने के भाव का नाम हिंसा है। आचार्य अमृतचंद ने लिखा है
यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां दव्यभावरूपाणाम्। व्यपरोपणस्यकरणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा॥
___ पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय श्लोक 43 जब मन में कषाय उद्बुद्ध होती है तो सर्वप्रथम शुद्धोपयोग रूप भाव प्राणों का घात होता है। यह प्रथम हिंसा है उसके पश्चात् कषाय की तीव्रता से दीर्घ श्वासोच्छ्वास हस्त-पाद आदि से अपने अंगोपांगों को कष्ट पहुंचाता है, यह द्वितीय हिंसा है। इसके बाद मर्मभेदी कुवचनों से लक्ष्यपुरुष के अन्तरंग मानस को पीड़ा पहुंचाई जाती है, यह तीसरी हिंसा है फिर तीव्र कषाय व प्रमाद से उस व्यक्ति के द्रव्य प्राणों को नष्ट करता है, यह चतुर्थ हिंसा है। इस तरह द्रव्य और भाव रूप प्राणों का घात करना हिंसा है।