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अनेकान्त/55/3
नहीं की जा सकती और क्षणिक जीव का स्वयं ही नाश हो जाता है तब हिंसा कैसे संभव हो सकती है। अहिंसा का मनोवैज्ञानिक आधार- आचारांग में लिखा है 'सव्वेसिं जीवियं पियं (अध्याय 2/64) अर्थात् सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है। सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है। भगवती आराधना में लिखा है
जह ते ण पियं दक्खं तहेव तेसिपि जाण जीवाणं। एवं णच्चा अप्पोवमिवो जीवेसु होदि सदा॥ 777 ॥
हे क्षपक, जिस प्रकार तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही अन्य जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है, ऐसा ज्ञात कर सर्व जीवों को आत्मा के समान समझकर दुःख से निवृत हो।
अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। वस्तुतः अहिंसा जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभाव एवं अद्वैत भाव है। समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैत भाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा के दो रूप- अहिंसा का शब्दानुसारी अर्थ है- हिंसा न करना। अ + हिंसा इन दो शब्दों से अहिंसा शब्द बना है। इसके पारिभाषिक अर्थ निषेधात्मक एवं विध्यात्मक दोनों हैं। राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना। प्राण-वध न करना या प्रवृत्ति मात्र का निरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है। सत् प्रवृत्ति करना, स्वाध्याय, अध्यात्म सेवा, उपदेश, ज्ञान-चर्चा आदि आत्मा की हितकारी क्रिया करना विध्यात्मक अहिंसा है। संयमी के द्वारा अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाता है, वह भी निषेधात्मक अहिंसा है यानि हिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है। विध्यात्मक अहिंसा में सत् क्रियात्मक सक्रियता होती है। यह स्थूल दृष्टि का निर्णय है। गहराई में पहुंचने पर बात कुछ और है। निषेध में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निषेध होता ही है। निषेधात्मक अहिंसा में सत्-प्रवृत्ति और सत्प्रवृत्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होता है हिंसा न करने वाला यदि आन्तरिक प्रवृत्तियों को शुद्ध न करे