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अनेकान्त/5513
आधारित है। समयसार में लिखा है
जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कता। तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्या॥ 109।।
वास्तव में आत्मा अपना शुभ या अशुभ जैसा भी भाव करता है तो वह अपने भाव का करने वाला होता है और वह भाव ही उसका कर्म होता है तथा अपने भावरूप कर्म का ही भोक्ता होता है।
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स।
णाणिस्स दु णाणमओं अण्णाणमओ अणाणिस्स॥ समयसार-134 ___ यह आत्मा जिस समय जैसा भाव करता है उस समय उसी भाव का कर्ता होता है, अतः ज्ञानी के ज्ञानमय और अज्ञानी (संसार) के अज्ञानमय भाव होता है। भगवती आराधना में लिखा है
अत्ता चेव अहिंसा अत्ता हिंसेति णिच्छओ समये।
जो होदि अप्पमत्तो अहिंसगो हिंसगो इदरो॥ 803।। यथार्थ रूप से निश्चय नय से आत्मा ही स्वतः हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है। प्रमाद युक्त आत्मा-विकार भावयुक्त हिंसा रूप है और विकार रहित आत्मा अहिंसा है। षट्खण्डागम पुस्तक 14 पृ.-90 में लिखा है
स्वयं अहिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिहद्वयं भवेत्। प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः॥
अहिंसा भी स्वयं होती है और हिंसा भी स्वयं होती है। दोनो ही पराधीन नहीं है। जो प्रमादहीन है वह अहिंसक है और जो प्रमाद से युक्त है वह सदैव हिंसक है।
आत्मा और शरीर के कोंचत् भिन्नाभिन्नत्व की स्वीकृति में ही अहिंसा की परिपालना संभव है क्योंकि सर्वथा अपरिणामी नित्य जीव की तो हिंसा