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अहिंसा सिद्धान्त और व्यवहार
- डॉ. अशोक कुमार जैन
भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। अध्यात्म की आत्मा अहिंसा है । यद्यपि भारत के सभी धर्म और दर्शनों में किसी न किसी रूप में अहिंसा को महत्त्व दिया गया परन्तु जैन दर्शन में अहिंसा का जो व्यापक एवं सूक्ष्म वर्णन है वह अन्यत्र दुर्लभ है। जैन शास्त्रों में अहिंसा को भगवती और परम ब्रह्म कहा गया है। अहिंसा के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए अचार्य शिवार्य लिखते हैं
जह पव्वसु मेरू उव्वाओ होइ सव्वलोयम्मि ।
तह जाणासु उव्वायं सीलेसु वदेसु य अहिंसा ॥ 785॥
विश्व के अशेष पर्वतों में सुमेरू पर्वत तथा मनुष्यों में चक्रवर्ती बड़ा है उसी प्रकार समस्त व्रतों और शीलों में यह अहिंसा व्रत महान है।
सीलं वदं गुणो वा णाणं णिस्संगदा सुहच्चाओ। जीवे हिंसंतस्स हु सव्वे वि णिरत्यया होंति ॥ 789
शील, व्रत, गुण, ज्ञान, निष्परिग्रहता और विषय सुख का त्याग ये सर्व आचार जीव हिंसा करने वाले के निष्फल हो जाते हैं।
सव्वेसिमासमाण हिदुयं गब्धो व सव्वसत्थाणं ।
सव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा हु॥ 790
यह अहिंसा सकल आश्रमों का हृदय है, सम्पूर्ण शास्त्रों का मर्म है और सब व्रतों का पिण्डरूप सार है।
जीववहो अप्पवहो जीवदया होइ अप्पणो हु दया। विसकंटओव्व हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि ॥ 794