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अनेकान्त/55/3
अन्य जीवों का नाश करना अपना ही नाश करने के समान है। उन पर दया करना अपने ऊपर दया करने के समान है। अतः विषलिप्त कण्टक से जिस प्रकार लोग दूर रहते हैं उसी प्रकार संसार दु:ख भीरुओं को हिंसा से बचना चाहिए। सूत्रकृतांग में लिखा है
एयं खु णाणिणो सारं, ज ण हिंसइ कंचणं।
अहिंसा समयं चेव, एयावतं वियाणिया॥ प्रथम श्रुतस्कन्ध 1/85 ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है। आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने लिखा है
अहिंसा वर्त्म सत्यस्य त्यागस्तस्याः परिस्थितिः। सत्यानुयायिना तस्मात्संग्राह्यस्त्याग एव हि॥ वीरोदय काव्य। 13/36
सत्य तत्त्व का मार्ग तो अहिंसा ही है और त्याग उसकी परिस्थिति है अर्थात् परिपालक है। अतएव सत्य मार्ग पर चलने वाले के लिए त्याग भाव ही संग्राह्य है अर्थात् आश्रय करने योग्य है।
संरक्षितुं प्राणभृतां महीं सा व्रजत्यतोऽम्बा जगतामहिंसा। हिंसा मिथो भक्षितुमाह तस्मात्सर्वस्य शत्रुत्वमुपैत्यकस्मात्॥
वीरोदय काव्य 16/11 अहिंसा सर्व प्राणियों की संसार में रक्षा करती है, इसलिए वह माता कहलाती है। हिंसा परस्पर में खाने को कहती है और अकस्मात् (अकारण) ही सबसे शत्रुता उत्पन्न करती है, इसलिए वह राक्षसी है अतएव अहिंसा उपादेय है। अहिंसा परिपालन का तात्विक आधार- जैन परम्परा में चारित्रिक उन्नयन पर विशेष बल दिया है चारित्र का नैश्चयिक दृष्टि से अर्थ है स्वयं का स्वयं में स्थिर होना अर्थात् समत्व भाव की प्राप्ति। समभाव आत्मौपम्य भाव पर