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विचारणीय
भरतक्षेत्र के "सीमंधर " दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द ?
- पद्मचन्द्र शास्त्री
" बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का । जो चीरा तो कतरए खूं भी न निकला ।। "
जैन 'जिन' का धर्म हैं और 'जिन' वीतराग होते हैं -तिल तुष मात्र परिग्रह से अछूते । अपर शब्दों में हम इन्हें दिगम्बर कह सकते है। हम सब आज अपने को दिगम्बर धर्मी कहने में गौरव का अनुभव करते हैं, पर कम लोग ही ऐसे होंगे जो दिगम्बरत्व - संरक्षण के इतिहास से परिचित हों। हमारी मान्यता रही है कि एक बार बारह वर्ष का अकाल पड़ा, उससे पहले जैन धर्म भागों में विभक्त नहीं था। व्यक्तिगत रूपों में कई बातों में मतभेद होते हुए भी वे परम्परित जैन ही कहलाते रहे। पर बारह वर्षीय अकाल के बाद अनेक शिथिलाचारों के कारण उनमें दिगम्बर - श्वेताम्बर जैसे दो भेद हो गए और कालान्तर में तो अब अनेकों भेद सुने जाते हैं। अस्तु.....
दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में पर्याप्तकाल तक मतभेद और विवाद चलते रहे और धर्मनियमों की मर्यादाएँ बिखरने लगीं, तब धर्म की मूल मर्यादा की रक्षा का श्रेय आचार्य पद्मनन्दी (कुन्द - कुन्द) को प्राप्त हुआ। उन्होंने वीतराग धर्म के मूल 'दिगम्बरत्व' की रक्षा की ॐ हमारे 'मूलाचार्य' कहलाए दिगम्बरों को 'कुन्द - कुन्दाम्नायी' कहलाने का सौभाग्य मिला।
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जब वीतराग धर्म अर्थात् दिगम्बरत्व की यम-नियम सम्बन्धी सीमाएँ ध्वंस हो रहीं थीं तब कुन्दकुन्दाचार्य ने उन्हें दृढ़ता से स्थापित किया। फलतः सीमाओं को धारण करने के कारण वे स्वयं सीमंधर थे परन्तु ऐसे में लोगों ने कल्पना कर डाली कि वे विदेह क्षेत्र के तीर्थंकर सीमंधर स्वामी के पास