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जिनवर-स्तवनम् दिढे तुमम्मि जिणवर णटें घिय मण्णियं महापावं। रविउग्गमे णिसाए ठाइ तमो कित्तियं कालं॥ दिढे तुमम्मि जिणवर सिग्झइ सो को वि पुण्णपब्भारो। होइ जिणो जेण पहू इह-परलोयत्यसिद्धीणं॥ दिढे तुमम्मि जिणवर मण्णे तं अप्यणो सुकयलाह। होही सो जेणासरिससुहणिही अक्खओ मोक्खो॥
-मुनि श्री पद्मनन्दि हे जिनेन्द्र! आपका दर्शन होने पर मैं महापाप को नष्ट हुआ ही मानता हूँ। ठीक है- सूर्य का उदय हो जाने पर रात्रि का अन्धकार भला कितने समय ठहर सकता है? अर्थात् नहीं ठहरता, वह सूर्य के उदित होते ही नष्ट हो जाता है।।
हे जिनेन्द्र! आपका दर्शन होने पर वह कोई अपूर्व पुण्य का समूह सिद्ध होता है कि जिससे प्राणी इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी अभीष्ट सिद्धियों का स्वामी हो जाता है।
हे जिनेन्द्र! आपका दर्शन होने पर मैं अपने उस पुण्यलाभ को मानता हूँ, जिससे कि मुझे अनुपम सुख के भण्डार स्वरूप वह अविनश्वर मोक्ष प्राप्त । होगा।