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अनेकान्त/55/1
3. श्वेताबरों के प्रायः सभी आगम ग्रंथ अंग्रेजी और कुछ अन्य भाषाओं में
अनूदित होकर सर्वत्र पहुंच चुके हैं। दुर्भाग्य से, किसी भी दिगंबर आगमतुल्य ग्रंथो षट्खंडागम, कषायपाहुड, मूलाचार, भगवती आराधना आदि के अनुवाद अभी भी अछूते ही हैं। (आ. कुंदकुंद के ग्रंथ अपवाद हैं) कहते हैं कि षट्खंडागम को मठ से प्राप्त करने और उसके अनुवाद तथा प्रकाशन की प्रक्रिया में प्रायः सौ वर्ष लग गये थे। क्या दिंगबर समाज अब भी इतनी ही जड बनी रहेगी? एक बार मैंने एक दिगंबर जैनाचार्य से इस विषय की चर्चा की थी और उन्हें एक जैन विश्वभारती से प्रकाशित सटिप्पण दशवैकालिक भी भेंट किया था, पर मुझे लगता हैं कि उन्होनें उसी मनोवृत्ति का परिचय दिया है, जिसमें पश्चिमी विद्वानों ने मनोरंजक भाषा में कहा हैं कि दिगंबरों को आगम लोप की मान्यता का आधार उनकी यह मान्यता है कि यदि आगम रहेंगे, तो उनकी कृतियां कौन पढ़ेगा ? यद्यपि यह सत्य नहीं हैं, फिर भी कहीं न कहीं करारी चोट तो है ही। अस्तु, मेरा सुझाव यह है कि दिगंबर संस्थाओं और दानी व्यक्तियों की ओर से यह कार्य जितनी जल्दी हो, प्रारंभ करना/कराना चाहिये एवं उसे पश्चिमी विद्वानों को भेजना चाहिये। इस लेखक ने इस दिशा में अब तक तीन लाख का साहित्य 50 विद्वानों एवं संस्थाओं को भेजा है। यह भी प्रयत्न किया जा रहा है कि धवला, राजवार्तिक आदि ग्रंथों का अनुवाद किया जाय। पर इस
कार्य में उसे कहीं से भी सक्रिय प्रेरणा नहीं मिल रही है। 4. यह भी आवश्यक है कि विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों में 1-2 विद्वानों
को अवश्य भेजना चाहिये जो दिगंबर जैन धर्म के विविध पक्षों पर
शोधपत्र/भाषण दे सकें। 5. आजकल साधुवर्ग द्वारा मार्गदर्शित विभिन्न बहु-आयामी बहु-कोटि
व्ययी योजनायें चलाई जा रही हैं, जिसके विषय में पर्याप्त अलोचनायें हो रही हैं। फिर भी, उपरोक्त समस्या को ध्यान में रखकर साधुजनों से इस दिशा में भी कुछ मार्गनिर्देश करने के लिये निवेदन करना चाहिये।