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अनेकान्त/55/2
सफल बनाती है। इन्हीं के कारण उसे उपदेश देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
"काव्य' और 'महाकाव्य' की कसौटी पर भी कवि का 'जंबुसामि चरिउ' चरित-नामान्तक महाकाव्य पूरी तरह खरा उतरता है। भावयोजना की दृष्टि से इसे प्रेमाख्यानक महाकाव्य कहा गया है। इसका आरम्भ बड़े भाई के द्वारा छोटे भाई भवदेव के अनिच्छा पूर्वक दीक्षित कर लिये जाने से प्रिय-वियोगजन्य विप्रलंभ श्रृंगार से होता है। पर अन्त में शान्त रस में परिणत हो जाता है। कवि ने इस कृति में मुख्य रूप से वीर, बीभत्स, रौद्र, भयानक एवं शान्त रसों की योजना की है। इसके अलावा अद्भुत, करुण और हास्य रस के अंश भी इस काव्य में मिलते तो है, पर बहुत ही थोड़ी मात्रा में। कवि ने स्वयं भी अपनी इस रचना का श्रृंगार वीर रसात्मक महाकाव्य कहा है। कवि की रस योजना का आनन्द लेने के लिये इस कृति के कुछ प्रमुख प्रसंग हष्टव्य हैं- वियोग शृंगार-मिथुनों की उद्यान क्रीड़ा,13 संयोग शृंगार-जम्बू की प्रव्रज्या के समाचार से विचलित माता की मनोदशा,14 शान्त रस-भवदेव का अन्तर्द्वन्द्व, भगवान महावीर का उपदेश तथा संधि तीन सम्पूर्ण तथा संधि आठ, ग्यारह भी लगभग पूर्ण। वीर रस-युद्ध वर्णन में, भयानक और बीभत्स रस क्रमशः युद्ध वर्णन और विद्युच्चर मुनि के ऊपर दैवी उपसर्ग के प्रसंगो में मिलता है, रसों के साथ ही काव्यत्व उत्पन्न करने हेतु, कवि ने यथा-स्थान अलंकार, गुण और रीतियों की भी सुंदर योजना की है। अलंकारों में कवि ने अनुप्रास, यमक", उपमा, रुपक और उत्प्रेक्षा अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है। वसन्त ऋतु में मिथुनों की उद्यान क्रीड़ा में उत्प्रेक्षा की छटा देखते ही बनती है।20 रूपक का प्रयोग तो कवि ने इस कृति में आद्योपांत किया है। छन्दों की दृष्टि से इसकी रचना प्रमुख रुप से 16 मात्रिक छन्दों में हुई है। कवि ने माधुर्य-भवदेव का पत्नी स्मरण (2.14), ओज-हाथी का उपद्रव (4.21) युद्धवर्णन (5.14, 6.11) और प्रसाद सभी गुण का प्रयोग किया है। प्रसाद गुण के तो शाताधिक उदाहरण मिलते है।
कुछ प्रमुख सन्दर्भ- कवि का विनय प्रदर्शन (2.2) मगध देश का वर्णन (1.8) रानियों का सौन्दर्य (1.12), वसन्त आगमन (4. 15.7-16) जंबूस्वामी का आत्म-चिन्तन (9.1) आदि। इस प्रकार हम देखते है कि कवि की यह कृति गुणयुक्त और दोषमुक्त है। रचना शैली की दृष्टि से 'जंबुसामि चरिउ'