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अनेकान्त/55/2
चाहिए। सबके प्रति विनम्र होना चाहिए। 45 विनयवादियों के बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैं। देवता, राजा, यति, याति, स्थविर, कृपण, माता एवं पिता-इन आठों का मन, वचन, काय एवं दान से विनय करना चाहिये। 46 इन आठों को चार से गुणा करने पर इनके बत्तीस भेद हो जाते हैं।
सूत्रकृतांग चूर्णिकार ने 'दाणामा' 'पाणामा' आदि प्रव्रज्याओं को विनयवादी की बतलाया है। 47 आणमा और पाणमा प्रव्रज्या
भगवती सूत्र में आणामा और पाणामा प्रव्रज्या का स्वरूप निर्दिष्ट है। तामलिप्ति नगरी में तामली गाथापति रहता था। उसने 'पाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। पाणामा का स्वरूप वहां वर्णित है। 'पाणामा' प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् वह तामली जहां कहीं इन्द्र-स्कन्ध, रुद्र, शिव, वैश्रमण, दुर्गा, चामुण्डा आदि देवियों तथा राजा, ईश्वर, तलवर, माडबिक, कौटुम्बिक, ईभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, कौआ, कुत्ता या चाण्डाल को देखता तो उन्हें प्रणाम करता। उन्हें ऊंचा देखता तो ऊंचे प्रणाम करता और नीचे देखता तो नीचे प्रणाम करता।48
पूरण गाथापति ने 'दाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। उसका स्वरूप इस प्रकार है-प्रव्रज्या के पश्चात् वह चार पुट वाली लकड़ी का पात्र लेकर 'बेभेल' सन्निवेश में भिक्षा के लिए गया। जो भोजन पात्र के पहले पुट में गिरता उसे पथिकों को दे देता। जो भोजन दूसरे पुट में गिरता उसे कौए, कुत्तों को दे देता। जो भोजन तीसरे पुट में गिरता उसे मच्छ-कच्छों को दे देता। जो चौथे पुट में गिरता वह स्वयं खा लेता। यह 'दाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार करने वालों का आचार है। विनय का अर्थ
वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने भी विनय का अर्थ विनम्रता ही किया है। किंतु आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार प्रस्तुत प्रसंग में विनय का अर्थ आचार होना चाहिये। उन्होंने अपने अभिमत की पुष्टि में जैन आगमों के संदर्भ उद्धृत किये हैं। ज्ञाताधर्मकथा में जैन धर्म को विनयमूलक धर्म बतलाया गया है। थावच्चापुत्र